Atmadharma magazine - Ank 344
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९८ आत्मधर्म : २५ :
फत्तेपुर पछी बामणवाडथी
भावनगर सुधीनां
प्रवचनोनी प्रसादी
सम्यग्द्रष्टि क््यां छे?
सम्यग्द्रष्टि कोई संयोगमां नथी, सम्यग्द्रष्टि कोई रागमां नथी, संयोगथी अने
रागथी जुदा, पोताना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायमां ज सम्यग्द्रष्टि छे. पोताना शुद्ध द्रव्य–
गुण–पर्यायमां रागने के संयोगने धर्मीजीवन स्वीकारता नथी. रागनुं जे ज्ञान छे तेमां
धर्मी तन्मय छे, पण रागमां धर्मी तन्मय नथी. राग ने ज्ञाननी आवी भिन्नता वडे
धर्मी जीव ओळखाय छे.
अहा, धर्मीनी अनुभूतिमां सम्यग्दर्शन साथे अतीन्द्रिय आनंदन तो खरो, ने
अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायनो स्वाद तेमां एकसाथे समाय छे. पण रागनो कोई कण
तेमां समाय नहि केमके रागने चेतनस्वभावपणुं नथी. चैतन्यनुं कोई पण किरण
रागरूप न होय.
शरीर तो आत्मानी जात नथी, ते तो जड छे, आत्माथी जुंदुं छे; एटले ते तो
आत्माना धर्मनुं साधन नथी. हवे पाप अने पुण्यना जे भावो छे ते पण कांई ज्ञाननी
जात नथी, ते ज्ञानथी विरुद्ध जात छे, तेथी ते पण आत्माना धर्मनुं साधन नथी. पुण्य–
पाप ते तो बंने दुःखना ज कारण छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ते कदी दुःखनुं कारण नथी.
ज्ञाननुं वेदन तो सुख अने आनंदरूप छे. आ रीते ज्ञानने अने पुण्य–पापने भिन्नता
छे. तेथी पुण्य–पाप ते ज्ञाननुं कार्य नथी. आवुं भेद ज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे.
पुण्य करीने स्वर्गमां जवुं ते कांई विशेषता नथी. मनुष्य करतांय स्वर्गना भव
जीवे असंख्यगुणा कार्य छे. हवे मनुष्य करतां स्वर्गना भव असंख्यगणा क््यारे थाय?
मनुष्यमांथी स्वर्गमां जाय तेथी कांई स्वर्गना भव असंख्यगणा न थाय. केमके स्वर्ग
करतां मनुष्यना जीवोनी संख्या धणी थोडी छे. तिर्यंचना जीवोनी संख्या देवो करतां वधु
छे. एटले मनुष्य करतां तिर्यंचमांथी स्वर्गमां जनार जीवो असंख्यगुणा