Atmadharma magazine - Ank 344
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९८
निरालंबी, ते आनंदना अमृतथी भरेलुं छे. एकवार एनो स्वाद तो चाख! तो रागने
साधन मानवानी तारी बुद्धि छूटी जशे.
अरे, रागथी पार चैतन्यनी अमृत जेवी मीठी वात, संतो संभळावे छे,
वीतरागनी एवाणी चैतन्यना परम शांत वीतरागरसने बतावनारी छे; अने भररोग
मटाडवानुं ते अमोघ छे...... पण रागमां लीन थयेला कायरजीवोने ते प्रतिकूळ लागे छे.
तो परम हितकर, पण रागनी रुचिवाळाने ते वीतरागवाणी गमती नथी.
बापु! तारा हितनी आ वीतरागी औषधि छे. वैध कांई एम बंधायेल नथी के
दरदीने मीठी दवा आपे! मीठी दवा आपे के कडवी, पण रोग मटाडे एवी दवा आपे ते
वैदनुं काम छे. तेम वीतरागी संतो रागनी मीठास छोडावीने वीतरागी औषध वडे
भवरोग मटाडे छे.
अज्ञानी उपदेशको मीठी मीठी वात करीने रागनी प्रशंसा करे, शुभराग करे त्यां
घणुं कर्युं एम बतावे, त्यां अज्ञानीने मीठास लागी जाय छे के आ सारी वात करे छे.
पण बापु! ए रागनी मीठास तारो भवरोग नहि मटाडे; ए तो तारुं अहित करनारी
वात छे. ने संतो शुभरागनोय निषेध करीने, राग वगरनो वीतरागी मोक्षमार्ग बतावे
छे, ने चैतन्यना आश्रय सिवाय बीजा बधानो आश्रय छोडावे छे. त्यां कायर जीवोने ते
वात कडक ने कडवी लागे छे, पण बापु! ए वात तारुं परम हित करनारी छे, तारो
भव रोग मटाडवा माटे ए ज साची दवा छे; वीतरागनां परमशांत रस भरेला वचनो
ज आवो निरपेक्ष मोक्षमार्ग बतावी शके. आवो मार्ग कायर जीवो एटले रागनी
रुचिवाळा जीवो साधी शकता नथी; ए वीतराग मार्गने साधवो ते तो वीरनुं काम छे.
‘हरिनो मारग छे शूरानो..... नहीं कायरनुं काम’
शिष्य कहे छे के में सावधान थईने एटले रागथी जुदा पाडीने ज्ञानस्वभावनी
सन्मुख थईने, मारा ज्ञानस्वरूप परमेश्वर, आत्माने स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी अनुभव्यो;
मारा गुरुए कृपा करीने मने आवी सावधानीनो ज उपदेश दीधो हतो. जेवो उपर देश
दीधो हतो तेवो मारा अनुभवमां आव्यो. आम गुरु अने शिष्य बंनेनी अपूर्व संधि
छे. गुरुए उपदेशमां शुं कह्युं? के शिष्ये जेवुं अनुभव्युं तेवुं गुरुए कह्युं हतुं; शिष्ये शुं
अनुभव्युं? के गुरुए उपदेशमां जेवो शुद्ध आत्मा कह्यो हतो तेवो ज शिष्य अनुभव्यो.
उपदेश देनारा गुरु केवा होय ते पण आमां आवी गयुं.