: ३८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९८
(४७) सात शतक मुनिवर दुःख पायो, हथिनापुरमें जानो,
बलि ब्राह्नणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो.
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधना चित्त धारी,
तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु–महोत्सव भारी.
बलि–मंत्री वडे घोर उपद्रवथी हस्तिनापुरमां ७०० मुनिओ दुःख पाम्या पण
मुनिवरो ते मनमां न लाव्या; तेमणे तो स्थिरचित्तथी उपसर्ग सहन करीने
आराधनामां चित्त जोडयुं. तो हे जीव! तने शुं दुःख छे? मृत्यने महोत्सव समजीने तारुं
चित्त आराधनामां जोड.
(४८) लोहमयी आभूषण गढके, ताते कर पहराये.
पांचो पांडव मुनिके तनमें, तो भी नाहि चिगाये.
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता आराधना चित धारी,
तो तुमरे जिये कौन दुःख है, मृत्यु महोत्सव भारी.
शत्रुंजय पर पांचपांडवमुनिराजना शरीरमां धगधगता आभूषण पहेरावीने
उपद्रव्य कर्यो छतां तेमणे चित्कार पण न कर्यो, तेओ ध्यानथी डग्या नहीं; आवो
उपसर्ग शांतिचित्ते करी तेओ आराधनामां स्थिर रह्या; तो हे जीव! तने शुं दुःख छे?
मृत्युने महोत्सव समजीने तुं आराधनामां उत्साहित था.
(४९) और अनेक भये ईस जगमें समता–रसके स्वादी;
वेही हमको हों सुखदाता, हरिह टेवी प्रमादी.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चरन–तप ये आराधन चारों,
ये ही मोकोुं सुखके दाता, ईन्हें सदा उर धारों.
बीजा पण अनेक मुनि भगवंतो जगतमां थया, तेओ समतारसना स्वादी हता, ने
आराधनामां शूरवीर हता; अहो! तेमनुं स्मरण आपणने आराधनानो उत्साह जगाडीने सुख
आपे छे ने प्रमादनी टेव छोडावे छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ने तप ए चार आराधना ज
मने सुखनी दाता छे, अने तेने हुं सदाय मारा अंतरमां भक्तिथी धारण करुं छुं.
(प०) यों समाधि उर मांहि लावो, आपनो हित जो चाहो,
तहि ममता अरू आठों मदको, ज्योति –सरूपी ध्यावो.
जो कोई नित करत प्रयानो, ग्रामान्तरके काज,
सो भी सगुन विचार नीके, शुभके कारन साज. :