Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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:१४: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
चंद्रिकादेवी कहेवा लागी के स्वामी! आ आपोने बधो परिचित विषय छे तेथी बधा
प्रकारे आत्मसाधन आप करो छो, अमने ते आत्मभावना नथी आवती, तेनो उपाय शुं? तेने
जराक समजावी द्यो.
देवी! तमारामां कोईने पण परमात्मयोगथी प्राप्ति नथी थती एम न कहो! कोई कोईना
हृदयमां ते आत्मभावना प्रगट थाय छे. जेने तेनो अभ्यास छे तेओ आत्मध्यान करती रहे.
जेनामां शक्ति नथी तेओ ते जाणकारोनी वृत्ति जोईने प्रसन्न थती रहे. परमात्मध्यान ज
मुक्तिनुं साक्षात् कारण छे. ए वातनी श्रद्धा करीने बधा लोक पुण्याचारनुं पालन करे. तमे पण
करो. चोक्कस भविष्यमां तमोने मुक्तिनो मार्ग देखाशे.
चंद्रिकादेवी प्रसन्न थईने बेसी गई. एवामां ज्योतिर्माला नामनी राणी ऊठीने राजर्षि
भरतने प्रश्न करवा लागी: स्वामी! शास्त्रोमां सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय मुक्तिनुं
साधन छे एम कह्युं छे, परंतु आप कहो छो के आत्मयोग ज मुक्तिनुं साधन छे.–ए
आगमविरोधी उपदेश आपे शा माटे कर्यो?
भरतजी कहेवा लाग्या के, ज्योतिर्माला! तमे रहस्य जाणीने ज प्रश्न कर्यो छे. सारी वात
छे. तमारा विवेक उपर हुं प्रसन्न थयो छुं. हवे सांभळो, हुं समजावुं छुं. त्रणरत्न अने आत्मामां
कोई अंतर नथी. आत्माना स्वरूपने ज रत्नत्रयी कहे छे. दर्शन अने ज्ञान ए आत्माना स्वरूप
छे. दर्शन अने ज्ञानस्वरूपमां स्थिरभावथी रहेवाने चारित्र कहे छे, तेथी ए त्रणे वस्तु आत्माथी
भिन्न नथी. देवी! रत्नत्रय बे प्रकारनां छे आप्त–आगम–शास्त्रोनुं श्रद्धान अने ज्ञान करीने
व्रतादिकमां जोडावुं ते व्यवहाररत्नत्रय छे, गुप्तरूपे आत्मानुं ज श्रद्धान करवुं, जाणवुं तथा लीन
रहेवुं ते निश्चय रत्नत्रय छे. पहेलांं तो व्यवहार रत्नत्रयनो आश्रय करवो जोईए, पछी
निश्चयमां ठरी जवुं जोईए. देवी! ते वखते आत्मानुं संसार संबंधी दुःख नाश पामे छे अने
मुक्तिनी प्राप्ति थाय छे.
एवामां ज्योतिर्मालाने एक शंका ऊपजी. ते कहेवा लागी के स्वामी! आपे ए कह्युं के
भगवाननी श्रद्धा करवी व्यवहार अने आत्मानी श्रद्धा करवी ते निश्चय छे, तो शुं भगवानथी
पण मोटो आत्मा छे? ए वात तो अमारा समजवामां नथी आवी. आप बराबर समजावो.
भरतजी पोताना मनमां विचार करवा लाग्या के अध्यात्मयोग अनुभवमां ज