:१६: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
भावना करो ते प्रकारे ते देखाय छे. याद्रशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताद्रशी अर्थात् (जेवी
देवी! पहेलांं पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ए प्रकारे चार योगोमां पोताने जोडीने
देवी! पंचनमस्कार–मंत्रना पांत्रीश अक्षर छे. तेमने पोताना हृदयमां पांच पंक्तिओमां
देवी! पहेलांं आ चार ध्याननो अभ्यास करो, पछी त्रण ध्यान वर्जी केवळ पिंडस्थ
देवी! जप, स्तोत्र, दीक्षा, व्रत, स्वाध्याय, तपादि बीजा बधा सहायक छे, एटलुं ज नहि,
देवी! लोकमां बे प्रकारना प्राणी छे, एक भव्य, बीजा अभव्य. जे लोक क््यारेक मुक्ति
प्राप्त नथी करी शकता अने आ संसारमां दुःखोनो अनुभव करता थका अनादि–अनंत काळ
व्यतीत करे छे ते अभव्य छे. तेओ आत्मयोगनी अनेक प्रकारे निंदा करे छे. भव्य तेने रुचिपूर्वक
स्वीकारीने अनंत सुख प्राप्त करी ले छे. (अर्थात् अनंत सुखरूपे पोते परिणमे छे.) देवी! ते
अभव्य जीव शास्त्रो भणे छे, उपवासादि करीने शरीर अने पेटने सूकवी नांखे छे, परंतु तेनुं
हृदय कठोर रहे छे. ते पापी आत्मयोगने पाखंड समजे छे, तेने तो आत्मयोगनी प्राप्ति नथी
थती; जेने तेनी प्राप्ति थाय छे तेनी ते अभव्य निंदा करे छे. क््यारेक कोई तेने ते विषय
समजावे छे छतां पण ते तेनी साथे विसंवाद