: अषाढ: २४९८ आत्मधर्म :१९:
सम्यक्त्वसहित वीतरागप्रधान दशधर्मो
बारअनुप्रेक्षामां छेल्ली धर्म अनुप्रेक्षा छे; तेमां प्रथम शुद्ध
सम्यक्त्वसहित श्रावकनां धर्मोनुं वर्णन कर्या पछी मुनिधर्मना
वर्णनमां रत्नत्रयसंयुक्त उत्तमक्षमादि दशधर्मोनुं वर्णन कर्युं छे.
एकवार दशलक्षणीयपर्युषदरमियान प्रवचनमां ते दशधर्मो
वंचाया हता. ते अहीं आप्याछे. दशधर्मना अंतमां मुनिराज कहे
छे के हे भव्य! तुं पुण्यथी निरपेक्षपणे आ उत्तम दशधर्मोने
परमभक्तिथी आराधजे.
जे रत्नत्रययुक्त साधु सदाय क्षमादिभावरूप परिणमेला छे अने जेमने सर्वत्र मध्यस्थता छे
ते साधुने धर्म कहेवामां आवे छे, अर्थात् एवा साधु ते पोते ज धर्म छे.
ते धर्म, क्षमादिभावरूप दश प्रकारनो छे; ते सारभूत सुखरूप छे; हवे कहेवामां आवता ते
दशधर्मोने परमभक्तिथी जाणवा.
देव–मनुष्य के तिर्यंचवडे घोर उपसर्ग करवामां आवे तोपण क्रोधवडे जे संतप्त थता नथी
तेमने उत्तम निर्मळक्षमा होय छे.
जे उत्तम ज्ञानप्रधान छे, उत्तम तपश्चरण करनार छे छतां पोताना आत्माने मानरहित राखे
छे तेने उत्तम मार्दवरत्न होय छे.
जे मनमां वक्रचिंतन करता नथी, कायाथी वक्रता करता नथी, वक्र वचन बोलता नथी, अने
सरळतापूर्वक निजदोषने गोपवता नथी तेने आर्जवधर्म होय छे.
तृष्णा–लोभरूपी मेलना पुंजने जे समता अने संतोषरूप जळ वडे धोई नांखे छे, तथा जे
भोजनमां पण गृद्धिरहित छे तेने विमळ शुचित्व (उत्तम शौचधर्म) होय छे.