:२०: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
जे जिनवचन अनुसार ज बोले छे, पोते तेनुं पालन करवामां अशक्तिमान होय तोपण,
व्यवहारमां पण जे असत्य कहेता नथी ते सत्यवादी छे.
जे जीवरक्षामां तत्पर छे अने गमनागमनादि सर्व कियामां तृणमात्रनो पण छेद ईच्छता नथी
तेने संयमभाव छे.
आ लोक तेमज परलोकनां सुखोथी निरपेक्ष थईने जे समभाव धारण करे छे तथा विविध
कायकलेश करे छे तेने निर्मळ तपधर्म छे.
जे मिष्टभोजनने, राग–द्धेषजनक उपकरणोने, तथा ममत्वना हेतुरूप स्थानोने छोडे छे तेने
त्यागधर्म होय छे.
चेतन तेमज अचेतन पदार्थना परिग्रहने जे त्रिविधे सर्वथा छोडे छे, तथा लोकव्यवहारथी जे
विरकत छे तेने निर्ग्रंथपणुं एटले के अकिंचनधर्म होय छे.
जे महिलाओना संगने परिहरे छे, तेना रूपने पण नीरखतो नथी, तथा कामकथा वगेरेथी
निवृत्त छे तेने नवधा ब्रह्मचर्य होय छे.
रणसंग्राममां जे शूरवीर छे ते कांई खरेखर शूरवीर नथी; पण तरुणीओना कटाक्षबाण वडे
पण जे विकारने पामतो नथी ते ज शूरवीरोमां साचो शूरवीर छे.
आ दशप्रकाररूप धर्म छे ते ज नियमथी दशलक्षणस्वरूप धर्म छे; परंतु बीजा के ज्यां सूक्ष्म
पण हिंसा होय ते धर्म नथी.
लब्धिहीन एवा मिध्यात्वसंयुक्त जीवोने आवो जिनधर्म अनादिकाळथी अलब्धपूर्व छे,–पूर्व
कदी तेनी प्राप्ति थई नथी.
आ दशप्रकारना जे अलब्धपूर्व धर्म छे ते पापकर्मनां नाशक छे अने पुण्यनां जनक छे, परंतु
पुण्यना अर्थे ते कर्तव्य नथी. (उत्तम धर्मोनी साथेना विकल्पवडे उत्तमपुण्य पण थई जाय छे
पण धर्मनुं सेवन पुण्यना प्रयोजनथी न करवुं धर्म तो वीतरागभाव ज छे.
जे पुण्यने पण ईच्छे छे तेणे तो संसारने ज ईच्छयो, करण के पुण्य तो सद्गतिनो हेतु छे,–
गतिरहित मोक्षनो हेतु ते नथी; निर्वाण तो पुण्यना क्षयथी ज पमाय छे.