: अषाढ: २४९८ आत्मधर्म :२१:
जे जीव विषयसुखनी तृष्णाथी कषायसहित वर्ततो थको पुण्यनी अभिलाषा करे छे तेने तो
विशुद्धि (मंदकषाय) पण दूर छे; अने पुण्यनुं कारण तो विशुद्धि छे. (आ रीते पुण्यनी
अभिलाषावाळाने साचां पुण्य पण होता नथी; केमके पुण्यनी अभिलाषा ते संकलेशपरिणाम
छे अने ते तो पापनुं मूळ छे)
पुण्यनी वांछावाळाने पुण्य बंधातुं नथी, पण वांछारहित पुरुषने पुण्यनी संप्राप्ति थाय
छे;– आ जाणीने हे यति! तमे पुण्यमां पण आदर न करो. मंदकषायरूप परिणमवाथी
जीव पुण्यने बांधे छे; तेथी पुण्यनो हेतु तो मंदकषाय छे, वांछा नहि. (पुण्यनी वांछा ते
तो तीव्रकषाय छे.)
ए रीते पुण्यथी निरपेक्षपणे आ उत्तम क्षमादि दशधर्मोने परम भक्तिपूर्वक जाणीने
मुमुक्षुजीवोए तेनुं सेवन करवुं.
* आत्मा........महात्मा *
अरे महात्मा! ज्ञान–दर्शन–सुखथी तुं भरेलो.... तारामां केम नजर नथी
करतो? ने बहारना विषयोमां नजर करीने कलशे केम भोगवे छे? बाह्य–
विषयोमां ज्यां तुं सुख माने छे त्यां खरेखर सुख नथी पण दुःख छे, कलेश छे.
तारा स्वभावमां नजर कर तो त्यां विषयोना कलेश वगरनुं महा अतीन्द्रिय
सुख भरेलुं छे.
सुखी थवा माटे हे जीव! तुं सिद्धपदनी आराधना कर. सिद्धपदनी
आराधना आत्मानी अंदर ज थाय छे. आत्मा पोते ज्ञान–दर्शन–सुख–स्वभावी
महान पदार्थे छे, तेमां कोई कलेश नथी. अहा, नीरालंबी आत्मदशा!
सिद्धभगवंतो तो पूर्ण नीरालंबी थया छे; एने साधनारा संतोनी दशा पण
अंतरमां घणी नीरालंबी होय छे.–रागना कणियानुं तेमां अवलंबन नथी,
आत्माना स्वभावनुं ज अवलंबन छे.
तारे परमेश्वरने जोवा होय ने परमेश्वर थवुं होय तो परमेश्वरनी शोध
तारा आत्मामां ज कर. पूर्ण ज्ञान ने पूर्ण सुखरूप परमेश्वरता तारामां ज छे.
आत्मामां स्वभावसुखनो एक अंश पण ज्यां वेदनमां आव्यो त्यां आखा
जगत प्रत्ये विरक्त थई गई, ने आत्मा पोते महात्मा थयो.
वाह रे वाह आत्मा! तुं तो ‘महात्मा’ छो. *