Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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:२६: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
छे तेम सम्यक्त्वरूपी सूर्यनो उदय थतां मिथ्यात्व–अंधकार नष्ट थई जाय छे. आ सम्यग्दर्शन ज
सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रनुं मूळ कारक छे, एना विना ते बंने होतां नथी. सर्वज्ञे कहेलां
जीवादि सात तत्त्वोनुं, त्रण मूढतारहित तथा आठअंग सहित यथार्थ श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन
छे. निःशंकता, वात्सल्य वगेरे आठ अंगरूपी किरणोथी सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहु ज शोभे छे. हे
भव्य (१) तुं आ श्रेष्ठ जैनमार्गने जाणीने, मार्गसंबंधी शंकाने छोड. (२) भोगोनी आकांक्षा
दूर कर. (३) वस्तुधर्म प्रत्येनी ग्लानी छोड. (४) अमूढद्रष्टि (–विवेकद्रष्टि) प्रगट कर (प)
धर्मात्मासंबंधी दोषना स्थान छूपावीने सत्यधर्मनी वृद्धि कर. (६) मार्गथी विचलित थता
आत्माने धर्ममां स्थिर कर. (७) रत्नत्रयधर्ममां अने रत्नत्रयधारक धर्मात्माओमां अतिशय
प्रीतिरूप वात्सल्य कर. अने (८) तारी शक्तिअनुसार जैनशासननी प्रभावना कर. आ प्रमाणे
निःशंकता आदि आठे अंगोथी सुशोभित एवा विशुद्ध सम्यक्त्वने तुं धारण कर.
सम्यग्दर्शननुं स्वरूप अने तेनो परम महिमा समजावीने, ते सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी
जे पुरुषे अत्यंत दुर्लभ आ सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न प्राप्त करी लीधुं छे