देवादि गतिमां कदी ऊपज्या न होय पण तेना मिथ्यात्वादि ऊंधा भावमां चारे गतिना अनंता
भव करवानुं सामर्थ्य पड्युं छे, चारे गतिना अनंत भवना कारणने तेओ सेवी ज रह्या छे, तेथी
तेओने तेवुं कार्य पण थई रह्युं छे एम कही दीधुं.
परम अतीन्द्रिय अमृतनो अत्यंत मधुर स्वाद आव्यो तेमां अनंतगुणनो रस समाई गयो
छे. आवा वेदनपूर्वक पर्यायमां जे चैतन्यधारा प्रगटी तेमां रागादि अन्य भावोना स्वादनो
अभाव छे.–आवुं वेदन भेदज्ञानमां धर्मीने थाय छे. रागनो अने ज्ञाननो स्वाद अत्यंत स्पष्ट
जुदो जणाय छे. राग वगरनो ए चैतन्यस्वाद अत्यंत मधुर अने जगतना बीजा बधा
रसोथी जुदी जातनो छे.
चेतनस्वादना अनुभवमां रागने भेळवतो नथी.....हुं मारा आत्माने सर्वत: मारा स्व–रसथी
भरपूर संचेतु छुं...पर्याय पण तेवी ज थईने, परिणमी रही छे. आवा मारा द्रव्यमां के पर्यायमां
क््यांय मोह नथी; मोह ते जरापण मारो नथी, हुं तो द्रव्यमां के पर्यायमां सर्वत्र एक
चैतन्यरसथी ज भरेलो छुं. शुद्धचैतन्यप्रकाशनो निधान हुं–तेमां मोह केवो?
गुणोने एक साथे जे प्रत्यक्ष जाणी ल्ये छे एवुं केवळज्ञान,