Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ: २४९८ आत्मधर्म :३१:
–आम छतां, दरेक जीव चारेगतिमां अनंतवार उपजी आव्यो–एम केम कहेवामां आवे
छे? तेनो खुलासो पण उपरना ‘भावश्रवण’ जेवो ज छे; एटले के एकेन्द्रिय अनंता जीवो भले
देवादि गतिमां कदी ऊपज्या न होय पण तेना मिथ्यात्वादि ऊंधा भावमां चारे गतिना अनंता
भव करवानुं सामर्थ्य पड्युं छे, चारे गतिना अनंत भवना कारणने तेओ सेवी ज रह्या छे, तेथी
तेओने तेवुं कार्य पण थई रह्युं छे एम कही दीधुं.
धर्मी जीवनो चैतन्यस्वाद
धर्मीजीव चैतन्यस्वादना वेदनना बळे रागादि समस्त परभावोने जुदा जाणे छे.
अनादिथी रागमां जे कदी नहोतुं आव्युं एवुं नवीन वेदन धर्मीने चैतन्यस्वादमां आव्युं छे.
परम अतीन्द्रिय अमृतनो अत्यंत मधुर स्वाद आव्यो तेमां अनंतगुणनो रस समाई गयो
छे. आवा वेदनपूर्वक पर्यायमां जे चैतन्यधारा प्रगटी तेमां रागादि अन्य भावोना स्वादनो
अभाव छे.–आवुं वेदन भेदज्ञानमां धर्मीने थाय छे. रागनो अने ज्ञाननो स्वाद अत्यंत स्पष्ट
जुदो जणाय छे. राग वगरनो ए चैतन्यस्वाद अत्यंत मधुर अने जगतना बीजा बधा
रसोथी जुदी जातनो छे.
आनंदपर्याय सहितना द्रव्यमां व्यापेलो आत्मा–ते हुं छुं–एम धर्मी अनुभवे छे. विकल्पो
बधा ते अनुभवथी बहार जुदा रही जाय छे. ते विकल्पो वडे आत्मा पमातो नथी. हुं मारा
चेतनस्वादना अनुभवमां रागने भेळवतो नथी.....हुं मारा आत्माने सर्वत: मारा स्व–रसथी
भरपूर संचेतु छुं...पर्याय पण तेवी ज थईने, परिणमी रही छे. आवा मारा द्रव्यमां के पर्यायमां
क््यांय मोह नथी; मोह ते जरापण मारो नथी, हुं तो द्रव्यमां के पर्यायमां सर्वत्र एक
चैतन्यरसथी ज भरेलो छुं. शुद्धचैतन्यप्रकाशनो निधान हुं–तेमां मोह केवो?
में मारा आत्माने स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूप कर्यो छे. ईन्द्रियातीत ज्ञानमां प्रत्यक्ष स्वसंवेदन
थयुं त्यारे ज खबर पडी के हुं आवो ज्ञानस्वरूप छुं. अनंता सिद्धोने अने ते दरेकना अनंत
गुणोने एक साथे जे प्रत्यक्ष जाणी ल्ये छे एवुं केवळज्ञान,