आवी शक्तिवाळा आत्माने स्वीकारनारा श्रद्धा–ज्ञान निर्विकल्प ज होय, विकल्प तेमां रही शके
नहि. चैतन्यस्वभावने स्वीकारनारा श्रद्धा–ज्ञान रागादि–विकल्पोथी जुदा ने जुदा रहे छे, ने
अंदरना आनंद वगेरे अनंत गुणनी निर्मळ परिणति साथे एकरसपणे परिणमे छे.
अनंतगुणना स्वादथी भरेलो चैतन्यरस धर्मीने अनुभवना स्वादमां आवे छे.
स्वभावचतुष्टयथी लक्षमां लेतां तेमां राग के रोग नथी. ज्ञान–आनंदनी सत्तामां रोग के रागनी
सत्ता नथी; एटले रोगनुं के रागनुं वेदन ज्ञानने नथी; ज्ञानीनी ज्ञानचेतना राग अने रोगथी
जुदी रहेती थकी ज्ञानआनंदने ज वेदे छे.
खरेखर शांतिनुं झरणुं वहे छे; केमके अंतरना शांतिना समुद्रना वेदनपूर्वक ते वाणी
नीकळे छे.
तेनी भक्तिमां, तेना महिमामां वारंवार उपयोग जोडवो. संसारनो दुःखप्रसंग याद आवे के
तरत ज उपयोगनो देव–गुरु–शास्त्र तरफ पलटी नांखवो. दुःखमां आर्त्तध्यान अने झूरणा
कर्या करवाथी तो ऊल्टा परिणाम बगडे छे ने