Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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:३२: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
ते केवळज्ञानना जेटला अविभागप्रतिच्छेद छे तेटला ज ज्ञानशक्तिना अविभागप्रतिच्छेद छे.
आवी शक्तिवाळा आत्माने स्वीकारनारा श्रद्धा–ज्ञान निर्विकल्प ज होय, विकल्प तेमां रही शके
नहि. चैतन्यस्वभावने स्वीकारनारा श्रद्धा–ज्ञान रागादि–विकल्पोथी जुदा ने जुदा रहे छे, ने
अंदरना आनंद वगेरे अनंत गुणनी निर्मळ परिणति साथे एकरसपणे परिणमे छे.
अनंतगुणना स्वादथी भरेलो चैतन्यरस धर्मीने अनुभवना स्वादमां आवे छे.
रागथी जुदो, रोगथी जुदो.
अतीन्द्रिय आनंदस्वभावथी भरेलो भगवान आत्मा रागथी ने रोगथी बंनेथी जुदो छे.
शरीर पांच करोड रोगनुं धाम छे, आत्मा अनंतगुणनुं धाम छे. आवा आत्माने
स्वभावचतुष्टयथी लक्षमां लेतां तेमां राग के रोग नथी. ज्ञान–आनंदनी सत्तामां रोग के रागनी
सत्ता नथी; एटले रोगनुं के रागनुं वेदन ज्ञानने नथी; ज्ञानीनी ज्ञानचेतना राग अने रोगथी
जुदी रहेती थकी ज्ञानआनंदने ज वेदे छे.
* शांतिदातार संत वाणी *
उद्वेगथी भरेला आ संसारमां अनेकविध दुःखप्रसंगे ज्ञानीसंतोनी वाणी जीवने केटली
शांति आपे छे तेनो अनुभव दरेक जिज्ञासु जीवने थाय छे. आत्महितप्रेरक संतवाणीमां
खरेखर शांतिनुं झरणुं वहे छे; केमके अंतरना शांतिना समुद्रना वेदनपूर्वक ते वाणी
नीकळे छे.
ए संतो कहे छे के संसारमां गमे तेवो आकरो प्रसंग बने तोपण जीवे शांति राखवी ते
कर्तव्य छे, केमके जीव पोते शांतिनो समुद्र छे. वीतरागी देव–गुरु–शास्त्रनुं स्वरूप विचारी
तेनी भक्तिमां, तेना महिमामां वारंवार उपयोग जोडवो. संसारनो दुःखप्रसंग याद आवे के
तरत ज उपयोगनो देव–गुरु–शास्त्र तरफ पलटी नांखवो. दुःखमां आर्त्तध्यान अने झूरणा
कर्या करवाथी तो ऊल्टा परिणाम बगडे छे ने