Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ: २४९८ आत्मधर्म :३३:
खोटाकर्म तथा खोटी गति बंधाय छे. माटे एवा विचार न आववा देतां आत्माना हितना
विचार करवा; बळपूर्वक आत्माने तेमां जोडवो. आत्माना अद्भुत गंभीर महिमावंत
स्वरूपने लक्षमां लेतां पण संकलेश छूटीने शांतिनी ठंडी हवा आवे छे.
सीताजी, अंजना वगेरे धर्मात्माओने केवा प्रसंग बन्या! छतां प्रतिकूळतामां पण धीरज
राखीने धर्ममां अडग रह्या, ने देव–गुरु–धर्मनुं शरण लीधुं. पूर्वे पोते ज पापकर्म बांधेलुं
तेना उदयथी बहारमां प्रतिकूळता आवी,–पण हवे अत्यारे एवा सारा भाव राखवा के
फरीने आवा संयोग ज न मळे. धर्मात्मानो सत्संग करवो, तेमनी कथा वांचवी, तेमना
सम्यक्त्वादिनुं स्वरूप विचारवुं, जैनधर्मनो महिमा करवो, भगवानना दर्शन–पूजन करवा,
एम सर्व प्रकारे आत्महित थाय तेम वर्तवुं. धर्ममां चित्त परोवीने समाधान राखवुं–ए ज
सर्व प्रसंगे श्रेष्ठ उपाय छे.
जेणे शरीर धारण कर्युं तेने ते छोडवानुं तो छे ज,–पछी कोईने नानी उमरमां छूटे के कोईनी
मोटी उमरमां छूटे. आत्मा तो अविनाशी छे. चोथा काळमां तो वैराग्यना प्रसंगो बनतां
केटलाय जीवो मोक्षने साधवा माटे दीक्षा लईने वनमां चाल्या जतां. मुमुक्षु जीवे तो विलंब
वगर अंतरमां ऊतरीने देहथी भिन्न आत्मानो अनुभव करी लेवा जेवुं छे.
आत्मानी वीरता, आत्मानी खरी बहादूरी तो एमां छे के पोताना आत्माने परभावोथी
भिन्न अनुभववो. अंदरनी चैतन्यचेतनाने बाह्यभावो स्पर्शवा न देवा ए ज ज्ञायकनी
वीरता छे. ज्ञायकतत्त्वना आनंद पासे जगतनुं कोई दुःख फरकी शकतुं नथी. अहा, ए
अद्भुत आश्चर्यकारी चैतन्यस्वादनी शी वात!
आवो अद्भुत आनंद प्राप्त करवा माटे जिनेन्द्र भगवाननो अने तेमणे बतावेला
आत्मानो अत्यंत महिमा लाववो. खोटा देव–गुरुने मानवाथी तो जीवना भाव बगडे छे.
साचा देव–गुरुनुं–धर्मात्मानुं द्रढ शरण लईने, तेमणे बतावेला मार्गे आत्मामां आनंद करतां
शीखवुं, जीव पोते आनंदरूप छे, तेमांथी आनंद लेवो. आत्मामां आनंद छे एटले आत्मामां
गमाडवुं; संसारमां तो क््यांय गमे एवुं नथी. क््यांय चित्त न लागतुं होय त्यारे भगवानना
मंदिरे जईने बेसवुं, ने भगवानना गुणनो विचार करवो के अहो! आवी वीतरागमुद्रा ज
शांतिदायक छे. तथा साधर्मीनो संग करवो.