:३६: आत्मधर्म : अषाढ: २४९८
एक परमभावने ज अनुभवी रह्या छे तेमने भेदरूप अनेक भावोवाळा व्यवहारनुं शुं काम छे?
शुद्धनय आत्माना एक अचलित पूर्ण अखंड स्वभावने प्रगट करे छे एटले ते रूपे पोताने
अनुभवे छे, तेमां कोई अशुद्धता के भेदना विकल्पो नथी.
आवा अखंड शुद्धतत्त्वने अनुभवमां लीधा विना, लक्षमां लीधा विना, एकला भेदने ने
अशुद्धताने जाणवा जाय तो तेने व्यवहारनयनुं पण साचुं ज्ञान थतुं नथी, ते तो एकली
अशुद्धताना अनुभवमां ज पर्यायबुद्धिथी अटकी जाय छे. तेनी अहीं वात नथी. अहीं तो
परमार्थना अनुभवरूप प्रयोजन जेना लक्षमां छे एवो जीव, व्यवहारकाळे व्यवहारने जेम
छे तेम जाणे छे,–ए रीते जणायेलो व्यवहार प्रयोजनवान छे. प्रयोजनवान एटला माटे
कह्यो के तेनुं ज्ञान करीने पण ते कांई व्यवहारना आश्रयमां रोकातो नथी, पण पर्यायमां
शुद्धता वधारीने परमार्थ तरफ ढळतो जाय छे ने अशुद्धताने छोडतो जाय छे. ए रीते
परमार्थना अनुभवथी साधक पोताना प्रयोजनने साधे छे. बे नयो भिन्न छे, बंनेनो
विषय भिन्न छे. बंनेनो कार्यकाळ पण भिन्न छे; बंने नयो पोतपोताना समयमां
कार्यकारी छे. तेमां ज्यारे परमार्थआत्मानी अनुभूतिस्वरूप शुद्धनय वर्ते छे ते काळे
व्यवहारनय होतो नथी. अने जे काळे परमार्थना अनुभवरूप शुद्धनय नथी ते काळे
अशुद्धताने जाणनारो व्यवहारनय होय छे. आ रीते पोतपोताना समयमां बंने नयो
कार्यकारी छे. पण, तेमां सम्यक्त्वादिनी प्राप्ति तो शुद्धनयना अनुभवथी ज थाय छे,
व्यवहारना आश्रये सम्यक्वादि थता नथी, ए महा सिद्धान्त छे, ने ते जैनधर्मनुं जीवन छे.
परमार्थस्वरूप एक शुद्ध आत्माना अनुभव वडे मुमुक्षुजीव मोक्षमार्गने साधे छे.
[समयसार गा. १२ ना प्रवचनोमांथी]
पूजारी....कोनो?
हे जीव!
तुं ज्यारे भगवान जिनेन्द्रदेवनी पुजा करे छे त्यारे
पूजानो शुभराग तने वहालो छे? के
भगवाननी वीतरागता तने वहाली छे?
तेनो विचार कर.
जो वीतरागतानो आदर ने पूज्यबुद्धि होय तो ज तारी पूजा साची.
पण जो रागनो तने आदर होय तो–
तें वीतरागने नथी पुज्या.......तें तो रागने ज पूज्यो छे.