: १० : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
छे, आनंदरसथी भरेलो छे. आत्मा पोते सहज आनंदस्वरूप छे एटले अंतर्मुख थईने
आत्मानी समीपतामां आनंद ज वेदाय छे. मारी चेतना–परिणतिमां मारो आत्मा ज
समीप छे, ने बीजा बधा परभावो दूर छे–जुदा छे. मारो आत्मा मारी परिणतिथी
जरापण दूर नथी.–आत्माना स्वरूपनुं आवुं संचेतन धर्मीने निरंतर होय छे.
अहा, ज्ञान–दर्शनथी पूर्ण, शांतरसथी भरपूर एवो हुं, मारा स्वसंवेदनमां राग
के विकल्त केवो? ज्ञानानंदमय मारा स्वभाव सिवाय बीजुं कांई परमाणुमात्र पण मने
मारापणे जराय भासतुं नथी. चैतन्यनी जे शांति पासे तीर्थंकर नामकर्मनो विकल्प पण
अग्निनी भठ्ठी जेवो लागे छे,–आवा शांतरसमय महा सुंदर वस्तु मारामां मने प्रगटी
छे, ने हे जीवो! तमारामां पण आवी सुंदर शांतरसथी भरपूर चीजवस्तु पडी ज छे; तो
तमे पण तमारा शांतरसना समुद्रमां जाओने! तेमां तमने अपूर्व शांति मळशे. ने
अनादिनां दुःख–अशांति दूर थई जशे. आजे ज तमे आवा वीतरागी शांतरसने
तमारामां अनुभवो! आम स्वानुभवमां प्रगटेला शांतरसनो स्वाद चाखवा माटे
जगतना जीवोने पण आमंत्रण आपे छे.
उपशमरस वरस्या रे मारा आत्ममां,
अनंत गुणथी उल्लस्या चैतन्य देव जो.
गुरु वरसावे अमृतनां वरसाद रे
आवो......आवो! करीए शांतरस पान जो....
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* रत्नीयो *
आत्मा ‘रतनीयो’ छे.
गुरुदेवे तेने कहे छे के हे रतनीया!
तुं तो अनंत चैतन्यरत्नने धरनार
रतनीयो छो. तुं दीन नथी, अनंत
रत्नोनो तुं भंडार छो.....तेनी सन्मुख
थतां तने सम्यक्त्वादि अनंतरत्नो
* रामनां रूप *
रावणना रूपवडे सीताजी रीझे नहीं,
ए तो रामना रूप वडे ज रीझे.
तेम