एटले विषयोमां सुख मानीने लेपाता नथी. व्रतादिनो अभाव होवा छतां तेमां
सम्यग्दर्शननो दोष नथी, सम्यग्दर्शन तो तेनुं त्रणलोकमां प्रशंसनीय छे.
प्रशंसनीय छे; असंयम कांई प्रशंसनीय नथी पण सम्यग्दर्शन प्रशंसनीय छे; ते
सम्यग्दर्शनना प्रतापे मोक्षने साधी रह्या छे.
प्रेम छे तेने विषयोनो प्रेम पण पड्यो ज छे; ते शुभरागथी व्रतादि पाळे तोपण तेने
प्रशंसनीय नथी कहेता, केमके ते मोक्षना मार्गमां आव्यो नथी. तेथी समन्तभद्र महाराजे
कह्युं छे के–दर्शनमोहरहित एवा निर्मोही सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थ तो मोक्षमार्गमां स्थित छे,
पण जे मोहवान छे एवा मिथ्याद्रष्टि अणगार (द्रव्यलिंगी साधु) मोक्षमार्गमां नथी;
माटे मोही मुनि करतां निर्मोही गृहस्थ श्रेय छे–भलो छे–उत्तम छे. अहो, आवा
सम्यग्दर्शनसमान श्रेयकर ने त्रणलोकमा बीजुं कोई नथी.
रस नथी, चैतन्यसुख पासे विषयोमांथी सुखबुद्धि छूटी गई छे, एटले ते विषयोमां रत
नथी. जोके चारित्रदोषथी विषयासकित छे पण सम्यक्त्वनो दोष नथी.
विषयोने ज देखे छे, पण सम्यग्द्रष्टिने रागातीत–विषयातीत अतीन्द्रिय ज्ञान चेतना
वर्ती रही छे तेनो तो तुं देखतो नथी. ए चेतना विषयोने के रागने अडती ज नथी,
जुदी ने जुदी ज रहे छे; ने एवी चेतनाने लीधे ज ते सम्यग्द्रष्टि प्रशंसनीय छे. ज्यारे
तारामां तो ज्ञानचेतना छे ज नहीं, रागमां ज तुं तो एकाकार छो. छतां ‘अमने शो
वांधो? ’ एम कहे छे ते तारो स्वछंद छे.