सफळ कर्युं. आत्मामां समकित–दीवडो प्रगटावीने तें मोक्षनो पंथ लीधो. उमर भले
नानी होय, पण आत्माने साधे तेनी बलिहारी छे. देवो पण तेनां वखाण करे छे.
अलिप्त छे? ते वात अहीं त्रण द्रष्टांतथी समजावी छे:–
वच्चे रहेलुं देखाय छे पण तेनो स्वभाव जुओ तो ते पाणीने अडयुं ज नथी; तेम
धर्मात्मा संयोग अने रागरूपी कादव वच्चे रहेला देखाय पण एना ज्ञानभावने जुओ
तो ते परभावोथी तद्न अलिप्त छे. ज्ञान तो रागथी जुदुं ज छे, ते ज्ञान परभावोथी
लेपातुं नथी. आत्मानुं ज्ञान परथी भिन्न छे; जेने जुदा जाण्या तेमां अहंपणुं केम
थाय? अने जेनो पोताना स्वपणे अनुभव कर्यो एवी चैतन्य सत्तानुं अस्तित्व कदी
छूटतुं नथी, तेनी द्रष्टि, तेनी श्रद्धा कदी छूटती नथी, ते परभावरूपे कदी पोताने
अनुभवता नथी. निरंतर तेने भान छे के मारा ज्ञाननो एक अंश पण अन्यरूपे थयो
नथी, ज्ञान परभावना अंशने पण स्पर्शतुं नथी, छुटुं ने छूटुं अलिप्त ज रहे छे. आ
रीते सम्यग्द्रष्टि गृहवासमां रह्यो होय तोपण जळ कमळवत अलिप्त ज छे.
धर्मात्मानुं सम्यग्दर्शन सोना जेवुं शुद्ध छे, ते कटातुं नथी. चैतन्यबिंब आत्मा द्रष्टिमां
आव्यो ते द्रष्टिनी शुद्धतानुं एवुं जोर छे के परभावने ने अडवा देती नथी. रागादि
होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान– तो सो टचना सोना जेवा शुद्ध वर्ते छे. ते ज्ञान अने विकल्पने
अत्यंत जुदा ज राखे छे. विकल्पनो ज्ञानमां प्रवेश नथी, ज्ञान विकल्परूप थतुं नथी.
आवा ज्ञानवंत सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा प्रशंसनीय छे.