Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
सम्यग्द्रष्टि हाले छतां स्थिर, ने बोले छतां मौन–एम कह्युं छे, केमके शरीर अने
वचनथी अत्यंत भिन्न पोतानुं स्वरूप जाण्युं छे तेमां ज ते वर्ते छे, अंदरमां द्रष्टि अने
ज्ञान तो निजभावमां स्थिर बेठा छे, ते कांई विकल्पमां के वाणीमां जता नथी, तेथी
ज्ञानी तो स्थिर ज छे. अहो, ज्ञानीनी आवी अंर्तदशाने विरला ज ओळखे छे.
बाह्यद्रष्टिथी जोनारा जीवो ज्ञानीने ओळखी शकता नथी.
सम्यग्द्रष्टि जीवडो करे कुटुंब प्रतिपाल,
अंतरथी अळगो रहे, जेम धाव खेलावे बाळ.
धावमाता पुत्रनी जेम ज वहालथी बाळकने रमाडे–वहाल करे–संभाळ करे, ‘मारो
पुत्र’ एम कहीने बोलावे, छतां अंदर तेने भान छे के आ पुत्रने जन्म देनारी माता हुं
नथी; तेम धर्मात्मा शरीरादिनी चेष्टा करता देखाय, भाषामां पण बोलाय के आ मारुं घर
वगेरे, पण अंतरनी द्रष्टिमां भान छे के हुं तो चैतन्य छुं, मारा चैतन्यभाव सिवाय
बीजी कोई वस्तु जरापण मारी नथी; मारी चेतना परभावनी जनेता नथी.–आवुं
भेदज्ञान एकक्षण पण छूटतुं नथी, ने परभाव साथे के संयोग साथे जराय एकता थती
नथी.
(३) त्रीजुं द्रष्टांत छे नगरनारीना प्यारनुं. जेम वेश्यानो पर पुरुष प्रत्येनो
प्रेम ते साचो प्रेम नथी, तेने तो लक्ष्मीनो प्रेम छे; तेम जेणे पोताना चैतन्यतत्त्वने परथी
अत्यंत भिन्न अनुभव्युं छे एवा चैतन्यद्रष्टिवंत धर्मात्माने, परवस्तु पोतानी मानीने
तेनो प्रेम थतो नथी, तेनो साचो प्रेम तो पोतानी चैतन्यलक्ष्मीमां ज छे. आ द्रष्टांतथी
धर्मीने परप्रत्येना प्रेमनो अभाव बताव्यो छे. पोताना चैतन्य सिवाय जगतमां क््यांय
परप्रत्ये तेने आत्मबुद्धिथी राग थतो नथी, माटे ते अलिप्त छे.
आम त्रण द्रष्टांतवडे सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मानुं अलिप्तपणुं जाणवुं आत्मा सिवाय
बीजे क््यांय तेनुं मन ठरतुं नथी, आत्मा सिवाय बीजी कोई वस्तु तेने गमती नथी, तेने
साचो प्रेम ने एकता आत्मामां ज छे. पर उपर राग देखाय छे पण तेमां क््यांय परमां के
रागमां अंशमात्र सुखबुद्धि नथी. राग अने स्वभाव वच्चे तेने मोटी तिराड पडी गई छे,
अत्यंत भेद पडी गयो छे, ते कदी एकता थाय नहीं. राग अने ज्ञानने ते जुदा ने जुदा ज
अनुभवे छे. आवी ज्ञानदशावत सम्यग्द्रष्टिनो महिमा अपार छे. जेम नाळियेरमां अंदर
टोपरानो गोटो काचलीथी जुदो ज छे, तेम धर्मात्माना अंतरमां चैतन्य–