Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : १९ :
गोटो रागादि परभावोथी छूटो न छूटो ज छे; रागादिरूप थतो नथी, संयोगने पोताना
देखतो नथी, तेनाथी पोताने जुदो ज देखे छे.
भरतचक्रवर्ती होय के नानुं देडकुं होय,–बधाय सम्यग्द्रष्टिनी आवी दशा होय छे.
तेमणे आकाश जेवो अलिप्त पोतानो आत्मस्वभाव जाण्यो छे तेथी परभावोना प्रेममां
ते लेपाता नथी. गृहस्थपणुं छे–पण ते तो हाथमां पकडाई गयेला झेरी सर्प जेवुं छे.
जेम हाथमां पकडेलो पर्स फेंकी देवा माटे छे, पोषवा माटे नथी, तेम धर्मीने असंयमना
जे रागादि छे तेने ते सर्प जेवा समजीने छोडवा मांगे छे; ते रागने पोतानो समजीने
पोषवा माटे नथी. पोताना चैतन्यस्वभावनी अनुभूतिथी भिन्न जाणीने अभिप्रायमां
तो ते समस्त परभावोने छोडी ज दीधा छे के आ भावो हुं नथी. स्वानुभववडे
स्वपरनो विवेक थयो छे एटले स्वतत्त्वमां ज प्रीति छे ने परनी प्रीति छुटी गई छे.
विषय–कषायो तो पाप छे, धर्मी पण तेने पाप ज समजे छे, पण ते वखते
धर्मीना अंतरमां जे सम्यग्दर्शन छे ते शुद्ध छे, ते प्रशंसनीय छे, ते मोक्षनुं कारण छे. ते
सम्यग्दर्शननो भाव विषय–कषायोथी अलिप्त छे. एकसाथे जुदी जुदी बे धारा चाली
रही छे: एक सम्यक्त्वादि शुद्धभावनी धारा, ने बीजी रागधारा, तेमां धर्मीने
शुद्धभावनी धारामां तन्मयपणुं छे, ने तेना ज वडे धर्मीनी साची ओळखाण थाय छे.
अज्ञानी केटली रागधारने देखे छे तेथी धर्मीने ते ओळखी शकतो नथी.
अहा, वीतरागी जैनमार्ग! एनुं पहेलुं पगथियुं सम्यग्दर्शन, ते पण अलौकिक
छे. जैनमार्ग सिवाय बीजे तो सम्यग्दर्शन होतुं नथी; बीजा मार्गनी मान्यता ते तो
गृहीतमिथ्यात्व छे. धर्मीने एवा कुमार्गनो आदर होय नहीं. तेणे तो चैतन्यना अनंत
गुणना रसथी भरपूर अतीन्द्रिय आनंदना अनुभव सहित आत्मानी प्रतीत करी छे,
तेनी साथे निःशंकता वगेरे आठ गुण होय छे; तेने तीव्र अन्यायनां कर्तव्य होय नहीं,
मांस ईडां वगेरे अभक्ष्य खोराक होय नहीं, महा पापना कारणरूप एवा सप्त व्यसन
(–शिकार, चोरी, जुगार, परस्त्रीसेवन वगेरे) तेने होय नहीं, अरे, जिज्ञासु–सज्जनने
पण एवां पापकार्य न होय तो सम्यग्द्रष्टिने तो केम होय? चोथागुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने
भले संयमदशा नथी छतां तेने अलौकिक ज्ञान–वैराग्यदशा होय छे, स्वरूपमां
आचरणरूप स्वरूपा चरणदशा छे, मिथ्यात्व के अनंतानुबंधी क्रोधादि तेने थता ज नथी.
अतीन्द्रियआनंद ते धर्मीना ज्ञानमां वर्ते छे तेथी बीजे क््यांय तेने संतोष के आनंद
थतो नथी. विषयोनी गृद्धी नथी पण तेनो खेद छे. धर्मने नामे ते कदी स्वच्छंद पोषे
नहीं. असंयम