: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : २१ :
श्रावण आव्यो.समकित आव्युं
सम्यकत्वने श्रावणनी उपमा आपीने, एक साधक पोतानी
अंर्तपरिणतिनुं केवुं सुंदर वर्णन करे छे ते अहीं कवि श्री
धानतरायजीना नीचेना काव्यमां जोवा मळशे. श्रावणमास नुतन
वर्षावडे पुथ्वीने अमीसींचन करीने नवपल्लवित करे छे तेम
सम्यकत्वदशारूपी श्रावणमास आवतां असंख्यप्रदेशी चैतन्यपृथ्वी
धर्मना आनंदमय अंकुरो वडे केवी मजानी नवपल्लवित थाय छे! ते
अहीं बताव्युं छे. श्रावणमासमां समकित–श्रावणनुं आ भाववाही
काव्य सौने गमशे. (सं.)
अब मेरे समक्ति श्रवण आयो....आज मेरे आनंदरस वरसायो... अब०
बीती कुरीति मिथ्यामति ग्रीष्म, पावस सहज सुहायो.... अब मेरे०
अनुभव–दामिनी दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो.... अब मेरे०
बोले विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो.... अब मेरे०
गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपजे मोर सुमन विकसायो.... अब मेरे०
साधकभाव–अंकूर ऊठे बहु जित–तित हरष छवायो.... अब मेरे०
भूल–धूल कहीं मूल न सूझत, समरस जल झर लायो.... अब मेरे०
भूधर कयों नीकसे अब बाहिर, निजनीरचू घर पायो.... अब मेरे०
साधकने सम्यक्त्व थतां आत्माना अनुभवमां अतीन्द्रिय–आनंदमय चैतन्यरस
वरस्यो, असंख्य प्रदेशमां वीजळीक झबकारा जेवा प्रकाशथी भेदज्ञान झळकी ऊठयुं;–तेने
श्रावणमासनी उपमा आपीने, पोतानी परिणतिनी अपूर्वतानुं वर्णन करतां साधक कहे
छे के–
अहा! हवे तो मारे सम्यक्त्वरूपी श्रावणमास आव्यो.....आत्मामां आनंदरसनी
वृष्टिरूप चोमासुं आव्युं. अनादिकाळथी मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्मऋतुना आतापथी मारो
आत्मा संतप्त हतो, हवे सम्यकत्वरूपी श्रावण आवतां आनंद सहज