दूर थई गयो,–समक्ति थतां आवो आनंदमय श्रावणमास आव्यो.
भेदीने सम्यकत्व थतां स्वानुभवरूपी वीजळी ऊठी; अने चैतन्यनी सम्यक् प्रीति–
गाढरुचिरूप वादळानी घरनोर घटा छवाई गई. स्व–परनी भिन्नतानो निर्मळ विवेक
थतां भेदज्ञानरूपी चातक आनंदित थई ने पीयु–पीयु बोलवा लाग्या; अने सुहागी
एवी सुमति (सम्यक्मति–श्रुतदशा) ने प्रसन्नता थई.–मारा आत्मामां आवा
सम्यक्त्वरूपी श्रावणमास आव्यो छे.
आनंदथी विकसीत थाय छे....मोर कळा करीने प्रसन्नताथी नीचे तेम साधकनी
ज्ञानकळा आनंदथी खीली ऊठी छे. चोमासामां पृथ्वी लीलाअंकूरथी शोभी ऊठे तेम
सम्यकत्वरूपी श्रावणमां साधकभावना घणा अंकूर मारा आत्मामां ऊगी नीकळ्या छे....
धर्मनां अंकूरथी लीलोछम मारो आत्मा शोभी रह्यो छे ने जयांत्यां सर्वत्र असंख्य
आत्मप्रदेशोमां हर्ष–अतीन्द्रियआनंद छवाई रह्यो छे.–अहा, आवो सम्यकत्वरूपी–
श्रावण मारा आत्मामां आव्यो छे....
जराय देखाती नथी, भ्रमणानो मूळमांथी छेद थई गयो छे; अने चैतन्य वीतरागी
समरसरूपी जळनां झरणां आत्मामां वहेवा लाग्या छे. आवा सरस मजाना आनंदकारी
श्रावणनी वर्षा वच्चे चूंवाक वगरना पोताना निजानंदमय स्वघरमां बेठेला भूधरजी
हवे निजघरथी बहार शा माटे नीकळे? ए तो पोताना आनंदधाममां बेठा–बेठा
सम्यकत्वरूपी श्रावणनी मोज माणे छे,–आवो श्रावण हवे अमारे आवी गयो छे.
गंभीरतामां ज समाई जाय छे. (सं.)