संतमुनिवरोनी शी वात! आखा स्वभावने स्वीकारनारी पर्याय पण अनंतगुणना
रसथी उल्लसती आनंदरूप थई गई छे. अहा, अनंतगुणथी गंभीर एवा
चैतन्यतत्त्वने साधनारा जीवनी दशा पण महागंभीर होय छे....
आचार्य छे; तेओ कहे छे के अहा! आचार्य भगवंतो ज्ञानादि पंचाचारमां पूरा छे, धीर
अने गुणगंभीर छे; पंचेन्द्रियरूप हाथीने वश करवामां दक्ष छे. गमे तेवा घोर उपसर्गो
आवे तोपण पोताना स्वरूपनी साधनाथी तेओ डगता नथी एवा अत्यंत धीर छे,
अने गुणोथी गंभीर छे. रत्नत्रयमां ज्ञान–दर्शन–चारित्र कह्या पण एवा तो अनंत
गुणोवडे जेओ गंभीर छे, स्वभावना अनुभवमां अनंतगुणोनुं कार्य एक साथे थई
रह्युं छे–एवा गंभीर गुणवाळा आचार्यभगवंतो वंदनीय छे; ते आचार्यभगवंतोने
भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे भवदुःखने छेदवा माटे पूजीए छीए.
जुदी ज वर्ते छे, त्यां वच्चे पंचपरमेष्ठी भगवंतो प्रत्ये वंदन–नमस्कार वगेरेनो भाव
आवे छे. अंदर तो चैतन्यना स्वभावमांथी अनंत गुणना अतीन्द्रिय आनंदनो निर्मळ
फूवारो ऊछळे छे; ने परने नमस्कार वगेरेनो शुभभाव ते व्यवहार आचारमां जाय छे.
तेमां पण कहे छे के भक्तिक्रियामां कुशळता वडे अमे पूजीए छीए, एटले निश्चय–
व्यवहार बंनेनी ओळखाणपूर्वक अमे ते आचार्य भगवंतोने पूजीए छीए; एकला
रागमां ऊभा रहीने नथी पूजता, अंदर रागथी पार चैतन्यस्वभावनी सन्मुखतापूर्वक
ते वीतरागी आचार्य भगवंतोने अमे पूजीए छीए–आ रीते निश्चय–व्यवहार सहित
भक्तिक्रियामां कुशळता वडे अमे आचार्यभगवंतोने वंदीए छीए–पूजीए छीए.
छे. तेओ ज्ञानादिनी शुद्ध परिणतिरूपे परिणमी रह्या छे. ज्ञानी आवा