Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
कर्यो छे ने रागादि परभावने जुदा कर्या छे अहा! अनंत बेहद स्वभावने साधनारा
संतमुनिवरोनी शी वात! आखा स्वभावने स्वीकारनारी पर्याय पण अनंतगुणना
रसथी उल्लसती आनंदरूप थई गई छे. अहा, अनंतगुणथी गंभीर एवा
चैतन्यतत्त्वने साधनारा जीवनी दशा पण महागंभीर होय छे....
आवी दशावडे आत्माने साधनारा जे साधु परमेष्ठी भगवंतो, तेमा आचार्य
भगवंतो केवा छे? तेनी आ वात छे. शास्त्रकार कुंदकुंदस्वामी पोते पण आवा महान
आचार्य छे; तेओ कहे छे के अहा! आचार्य भगवंतो ज्ञानादि पंचाचारमां पूरा छे, धीर
अने गुणगंभीर छे; पंचेन्द्रियरूप हाथीने वश करवामां दक्ष छे. गमे तेवा घोर उपसर्गो
आवे तोपण पोताना स्वरूपनी साधनाथी तेओ डगता नथी एवा अत्यंत धीर छे,
अने गुणोथी गंभीर छे. रत्नत्रयमां ज्ञान–दर्शन–चारित्र कह्या पण एवा तो अनंत
गुणोवडे जेओ गंभीर छे, स्वभावना अनुभवमां अनंतगुणोनुं कार्य एक साथे थई
रह्युं छे–एवा गंभीर गुणवाळा आचार्यभगवंतो वंदनीय छे; ते आचार्यभगवंतोने
भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे भवदुःखने छेदवा माटे पूजीए छीए.
धर्मात्मानी परिणति अंदर चैतन्य तरफ नमी गई छे, तेमां ते कुशळ छे एटले
विकल्पथी जुदी ज्ञानरूप थईने ज ते परिणमी रही छे; आवी ज्ञानदशा तो विकल्पथी
जुदी ज वर्ते छे, त्यां वच्चे पंचपरमेष्ठी भगवंतो प्रत्ये वंदन–नमस्कार वगेरेनो भाव
आवे छे. अंदर तो चैतन्यना स्वभावमांथी अनंत गुणना अतीन्द्रिय आनंदनो निर्मळ
फूवारो ऊछळे छे; ने परने नमस्कार वगेरेनो शुभभाव ते व्यवहार आचारमां जाय छे.
तेमां पण कहे छे के भक्तिक्रियामां कुशळता वडे अमे पूजीए छीए, एटले निश्चय–
व्यवहार बंनेनी ओळखाणपूर्वक अमे ते आचार्य भगवंतोने पूजीए छीए; एकला
रागमां ऊभा रहीने नथी पूजता, अंदर रागथी पार चैतन्यस्वभावनी सन्मुखतापूर्वक
ते वीतरागी आचार्य भगवंतोने अमे पूजीए छीए–आ रीते निश्चय–व्यवहार सहित
भक्तिक्रियामां कुशळता वडे अमे आचार्यभगवंतोने वंदीए छीए–पूजीए छीए.
आचार्य–उपाध्याय के साधु–तेओ बधाय परम चिद्रूप आत्मतत्त्वमां अंतर्मुख
थईने निश्चय रत्नत्रयमां कुशळ छे; तेमने अहीं व्यवहारचारित्रमां भक्तिथी वंदन कर्यां
छे. तेओ ज्ञानादिनी शुद्ध परिणतिरूपे परिणमी रह्या छे. ज्ञानी आवा