भादरवो : २४९८ : आत्मधर्म : ३ :
धर्मात्मानुं आत्मचिंतन
अवसर आव्यो छे आत्मानी आराधनानो! चैतन्यवीरनी वीरता
ऊछळी जाय एवी परमतत्त्वनी आ वात छे...... अमे चैतन्य–हंसला
आनंदसरोवरमां केली करनारा ने वीतरागी अमृतने चरनारा.......
अमारा श्रद्धामां–ज्ञानमां परमात्मतत्त्व जयवंत वर्ते छे.
[नियमसार गा. ९६ उपरनां चैतन्यउल्लासथी भरपूर प्रचवनमांथी भा. सुद प]
ज्ञानी धर्मात्मा पोताना आत्माने केवो ध्यावे छे? तेनुं आ वर्णन छे–
केवल दरश केवलवीरज कैवल्यज्ञानस्वभावी छुं,
वळी सौख्यमय छे जेह ते हुं–एम ज्ञानी चिंतवे. (९६)
केवळज्ञानस्वभावी केवळदर्शनस्वभावी केवळसुखमय अने केवळ शक्तिस्वभावी हुं
हवे अनंतचतुष्टयरूप जे प्रगट पर्याय छे ते शुद्धसद्भुत व्यवहार छे, एटले तेनी भावना
सहजज्ञानस्वरूप त्रिकाळ हुं छुं, सहज दर्शनस्वरूप त्रिकाळ हुं छुं, सहज चारित्रस्वरूप
अरे भाई, रागवाळो विकारवाळो शरीरवाळो पोताने अनादिकाळथी मानीने तेनी
मिथ्या भावना भावी ने तेथी तुं भवचक्रमां रखडयो; पण हवे गुलांट मारीने,