परमात्माना दिव्यध्वनिमां आवेलुं आ तत्त्व छे.
विरह नहीं रहे, अंदरमां पूर्णदशानो विरह नहि रहे, बहारमां पण परमात्मानो विरह नहीं रहे.
–अहा, आवुं परमतत्त्व! ते सांभळतां रागनी रुचिवाळा कायरना तो काळजां कंपी ऊठे, पण
चैतन्यरुचिवंत वीरोनुं तो वीरपणुं ऊछळी जाय ने एनी परिणति अंतरना स्वभावमां झुकी
जाय: अहा, मारा परमात्म तत्त्वना अनंत–अनंत महिमानी वात शी करवी? अंतरना
भावश्रुतथी जेना पत्ता मळे एवो अद्भूत स्वभाव छे. साधकना भावश्रुतमां अंतरनुं
परमात्मतत्त्व छूपुं रही शके नहि. अंतरमां ढळेला आवा भावश्रुतमां सर्वे परभावनुं पच्चखाण
छे. हे भाई! आवा पूरा स्वभावनी भावना कर....तारी भावना जरूर पूरी थई जशे.–
गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो
प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो.....
स्थूळ–स्थूळ वात आवे छे. सूक्ष्म स्वभाव तो अनुभवगोचर छे.–आवा स्वभावने स्वसंवेदनथी
अनुभवगोचर करीने धर्मी कहे छे के अमे अमारामां धर्मना पाया नांख्या छे. स्वभावने
स्वानुभवगोचर कर्यो छे, तेनी भावना करीए छीए; ते भावना वडे हवे अल्पकाळमां पूर्ण
परमात्मपदने साक्षात् पामशुं–पामशुं–पामशुं....
जाणवा–देखवानुं बाकी रह्युं? सर्वने जाणवाना सामर्थ्यवाळो मारो ज्ञानस्वभाव में जाणी लीधो,
एकलुं पूरुं ज्ञान, ने एवा बीजा अनंत स्वभावो