Atmadharma magazine - Ank 347
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म भादरवो : २४९८ :
अहो, अद्भूत चैतन्यसुख!
* अमारुं दिल हवे चैतन्यसुखमां ज लाग्युं छे *
पोताना परम आनंदमय आत्मतत्त्वमां जेनुं चित्त लाग्युं छे, चैतन्यना महासुखनो स्वाद
जे लई रह्या छे–एवा धर्मात्मा जाणे छे के अहो! अमारुं आ तत्त्व महा सुखनिधान चैतन्य–
चिंतामणि छे–तेमां ज अमारुं चित्त लाग्युं छे; आ चैतन्यसुखना स्वाद पासे हवे क््यांय कोई
परभावमां अमारुं चित्त लागतुं नथी.
परद्रव्यनो आग्रह ते तो विग्रहनुं कारण छे. चैतन्यने चूकीने परद्रव्यमां चित्त जोडतां तो
राग–द्वेषरूप थाय छे अने तेनाथी शरीररूपी विग्रह उत्पन्न थाय छे, एटले के परद्रव्यनी
भावनाथी तो जन्म–मरण थाय छे. तेथी तेने अमे छोडी दीधो छे, ने अमारुं चित्त अमारा ज्ञान–
आनंदमय आत्माना अनुभवमां जोडयुं छे. अहा, आ चैतन्यना अमृत पासे बीजानो स्वाद छूटी
जाय– एमां शुं आश्चर्य छे! जेम अमृतनुं भोजन करनारा देवोनुं दिल बीजा तुच्छ भोजनमां
लागतुं नथी, तेम देव जेवो सम्यग्द्रष्टिजीव पोताना अतीन्द्रिय चैतन्यसुखनो स्वाद लेनार छे, ते
कहे छे के अहा! आवा चैतन्य–चिंतामणी सुखने छोडीने परभावरूपी झेरमां हवे अमारुं चित्त
लागतुं नथी;–एमां शुं आश्चर्य छे? धर्मीने माटे ए कांई आर्श्चयथी वात नथी, धर्मी तो
सहजपणे परभावथी भिन्न रहेतो थको चैतन्यना सुखने अनुभवे छे. ते धर्मीनी चेतना
परभावथी जुदी ने जुदी रहे छे.
अरे, आवा चैतन्यना वीतरागी सुख पासे पुण्यने पण छोडवुं ते कांई मोटी वात नथी.
अहा, आत्माना आनंद पासे शुभरागनी पुण्यनी के बाह्यविषयोनी शी किंमत छे? अमारुं चित्त
अमारी स्वानुभूतिमां रमी रह्युं छे, हवे दुनियानी कोई वस्तु अमने रमाडी शके नहि,–ललचावी
शके नहि. चैतन्यसुखनो अत्यंत मधुर स्वाद जेणे चाख्यो छे एवो धर्मी जीव, ज्यारे स्त्री–पुत्र–
माता–पिता–भाई–बेन–शरीर–लक्ष्मी ए बधायनो मोह छोडीने अतीन्द्रिय आनंदने साधवा जाय
छे...... त्यारे माता–पिता वगेरेने कहे छे के हे माता! मारा चैतन्यना आनंद सिवाय आ
संसारमां क््यांय अमारुं मन प्रसन्न थतुं नथी. क््यांय अमारुं चित्त चोटतुं नथी....दीक्षा लईने
हवे अमे