: १२ : आत्मधर्म भादरवो : २४९८ :
अमे मुिनअोना िमत्र छीअे
चैतन्यचमत्कारतत्त्वमां जेमणे पोतानुं चित्त जोडयुं छे–एवा श्री मुनिराज श्रोताने कहे छे
के हे मित्र, हे सखा! तुं पण मारा आ उपदेशना सारने सांभळीने, तुरत ज उग्रपणे आ
चैतन्यचमत्कार आत्मामां तारुं वलण कर.
अहा, मुनिओए जेने मित्र कहीने संबोध्यो, ते जीवनी शी वात! मुनि कहे छे के हे
सखा! मोक्षमां तुं पण अमारी साथे चालने! अमे चमत्कारी चैतन्यतत्त्वमां अमारुं चित्त जोडयुं
छे, ने तुं पण तारुं चित्त चैतन्यमां जोडीने अमारी साथे मोक्षमां आव.
जुओ, चैतन्यतत्त्वने सांळळीने तेमां चित्त जोडवुं–ते ज मुनिराजना उपदेशनो सार छे, ते
ज भगवान उपदेशनो सार छे, ने ते ज करवा जेवुं कार्य छे.
‘वाह! मुनिओए अमने मित्र कह्या!’ –धर्मी प्रमोदथी कहे छे के अहो! संसारनी मैत्री
छोडीने अमे तो मुनिओना मित्र थया; रागनी रुचिवाळो जीव तो संसारनो मित्र छे, ते
मोक्षमार्गी मुनिओनो मित्र नथी, एटले के ते मोक्षमार्गमां नथी. चैतन्यमां चित्त जोडीने जेणे
सम्यग्दर्शन कर्युं छे ते जीव मोक्षमार्गमां चालनारो छे, तेथी ते मोक्षमार्गी मुनिओनो मित्र छे.
अहीं मुनिराज तेने ‘सखा’ कहीने बोलावे छे.
अरे जीव! तारे मुनिओनो मित्र थवुं होय, पंचपरमेष्ठीना पंथे आववुं होय तो तुं शीघ्र
रागादिनी रुचि छोडीने, तारा परम चिदानंदतत्त्वमां तारुं चित्त जोड! केमके मुनिओ तो पोतानुं
चित्त चैतन्यतत्त्वमां ज जोडनारा छे,–माटे तुं पण तेम कर...... शीघ्र तारुं चित्त चैतन्यमां जोड....
ने मुनिओनो मित्र था.....
अरे, अमृतस्वरूप आत्मा, तेमां चित्तने जोडीने मुनिओ तो आनंदना अमृत पीए छे,
बीजा जीवोने पण संबोधे छे के हे भव्य! हे सखा! अमारी जेम तुं पण अंतर्मुख थईने
आनंदना अमृतनुं पान कर! तुं पण अमारी साथे मोक्षमां चाल! आवो अपूर्व उपदेश
सांभळीने जेणे चैतन्यमां चित्त जोडयुं ते मुनिओनो मित्र छे.....ते पण मुनिओना पगलेपगले
मोक्षमार्गे जई रह्यो छे.
अहा, आत्माना आनंदस्वभावनो आवो सरस उपदेश अमारी पासेथी तने सांभळवा
मळ्यो, तो हे भाई! हे सखा! हे मित्र! संसारना झेर जेवा विषयोमां हवे चित्त कोण जोडे? एने
शीघ्र वोसरावीने, तारा चिदानंदस्वरूपमां ज तारुं चित्त जोड! एक चैतन्यनुं ज अवलंबन करीने
अन्य सर्वे परभावोनुं आलंबन छोड...ने आनंद–परिणति वडे अमारी साथे साथे तुं पण
मोक्षमां आव.
[आ नियमसार कळश १३३ उपरना भावभीना प्रवचन उपरथी बनावेलुं काव्य आप सामे
पाने वांचशो–]