Atmadharma magazine - Ank 347
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म भादरवो : २४९८ :
धर्मात्मानी अद्भुत महिमावंत आत्मदशा

जैनशासनमां धर्मात्माने ओळखवानी रीते कोई अनोखी छे...
आचार्यप्रभु कहे छे के हे जीव! पूर्वे तने तारो एकत्वस्वभाव
ओळखतां आवडयुं नथी, अने आत्माने जाणनारा ज्ञानीओनी सेवा
करतां पण तने साची रीते आवडयुं नथी. समयसारमां ज्ञानीने
ओळखवानी जे अद्भुत रीत आचार्यदेवे देखाडी छे –ते रीत गुरुदेव
आपणने समजावे छे....ने ज्ञानीनी साची सेवा करीने आत्महित
साधतां शीखडावे छे. ते श्रावण वद बीजनी आसपासनां आ
प्रवचनोमां वांचीने मुमुक्षुओने प्रसन्नता थशे. (सं.)
धर्मात्मा अतीन्द्रिय आनंदना रसिला छे, संसारमां बीजा कोई पदार्थनो रस एने नथी.
चैतन्यना आवा रस वडे हे जीव! तुं तारी शुद्ध परिणतिनो रक्षक था.
अहो, निर्विकल्प आराधना..... तेमां पोताना परम चैतन्यभावनुं ज वेदन छे; विकल्पनुं
वेदन तेमां नथी.
धर्मीने परमआनंदना नाथ चैतन्यप्रभुनो पोतामां भेटो थयो छे; हुं पोते ज आवो
चैतन्यप्रभु छुं–एम ते अनुभवे छे.
सम्यग्दर्शन सदाय पोताना परम चैतन्यतत्त्वमां सर्वथा अंतर्मुख वर्ते छे; परभावोथी ते
विमुख छे.
आराधकना परिणामनी धारा चैतन्यमां सदा अंतर्मुख वर्ते छे, तेनी निर्मळ पर्यायनी संतती
अतूट धारावाही वर्ते छे.
सर्वज्ञपरमात्माए जेवो आत्मा देख्यो छे तेवो ज आत्मा धर्मीए पोताना अंतरमां देख्यो छे.
सर्वज्ञना शुद्ध आत्मामां ने मारा शुद्धआत्मामां कांई फेर नथी, एम धर्मीने स्वानुभूतिपूर्वक
साची श्रद्धा छे.