Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : ७ :
चेतनापरिणतिनुं नाम जैनधर्म छे. अहा! आवो जैनधर्म! तेनुं स्वरूप जे समजयो तेने
भव रहेता नथी.
अरे, चोराशीना दुःखना अवतार जेनाथी करवा पडे ते भाव धर्मी जीवनुं कार्य
कर्म होय? बापु! गंभीर ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा, तेने जाणीने भवनो अंत
करवा माटेनो आ भव छे.
राग वखते ज्ञानी तो ‘ज्ञानी’ ज रहे छे, रागी थतो नथी. रागने ‘जाणवानी’
क्रिया ते करे छे, पण रागने ‘करवानी’ क्रिया ते करतो नथी. (ज्ञप्तिक्रिया करे छे,
करोतिकिया करतो नथी.)
अरे, शुं सज्जन–आर्यमाणसना घरमां ते कांई मांस रांधवाना काम थाय?–कदी
न थाय. तेम सत् एवो ज्ञानस्वभाव, तेमां वर्तता सत्जन–ज्ञानी आर्यधर्मात्मा, तेना
ज्ञानघरमां रागादि विकारनां कार्य केम थाय?–न ज थाय. ज्ञानघरमां विकार होय नहीं.
माटे ज्ञानी धर्मात्मा रागादि विकारभावनो अकर्ता ज छे; एनुं कार्य तो परम शांत
वीतरागभावरूप छे; तेमां ज व्यापीने तेने ते ग्रहण करे छे.
मारी सम्यक्त्वादि जे निर्मळपर्यायो छे तेना आदि–मध्य–अंतमां एटले के तेमां
सर्वत्र मारो शुद्ध आत्मा ज रहेलो छे, पण आदिमां–मध्यमां के अंतमां क््यांय कर्म के
रागादि परभावो मारी पर्यायमां रहेला नथी; मारी सम्यक्त्वादि पर्यायोमां मारा शुद्ध
आत्मा सिवाय बीजा कोईने हुं ग्रहतो नथी, तेनुं अवलंबन लेतो नथी. मने मारी
सम्यक्त्वपर्यायमां, ज्ञानमां, आनंदमां, क््यांय रागनुं–निमित्तनुं देव–गुरु–शास्त्रनुं
कोईनुं ग्रहण नथी, पण मारा आत्मानुं ज ग्रहण छे, तेने ज हुं ग्रहण करुं छुं.
सम्यक्त्वपर्याय आत्मारूपे थईने ऊपजी छे, रागरूपे थईने नथी ऊपजी.–कर्ता थईने
पोतानी आवी ज्ञानचेतनारूप पर्यायने करे छे–ते ज धर्मीनुं लक्षण छे.
जय ज्ञानचेतना

समयसार गा. ७प–७८ मां धर्मात्माना चिह्नरूप
ज्ञानचेतनानुं अद्भूत वर्णन आप वांची रह्या छो

ज्ञानचेतनारूप थयेलो साधक एकला चैतन्यना आनंदने ज भोगवे छे; हजी