Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : आसो: २४९८
कर्ता–कर्मना भेद पाडीने समजाव्युं छे.
जेम माटी अने घडो एक ज स्वरूपना होवाथी व्याप्य–व्यापकपणे तेमने कर्ता–
कर्मपणुं छे, पण तेम ज्ञान अने राग कांई एक स्वरूपवाळा नथी एटले तेमने व्याप्य–
व्यापकपणुं के कर्ता–कर्मपणुं नथी. ज्ञानी रागने जाणे भले पण ‘आ मारा ज्ञाननुं कार्य
छे’ एम ते नथी जाणता; हुं चेतनस्वभावी छुं ने ज्ञान ज मारुं कार्य छे–एम ते
ज्ञानद्रष्टिथी पोताने अनुभवे छे.
अहा, आवा ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि दोह्मली छे.....अने एनां महान फळनी तो
शी वात! भव वगरनी मारी चेतनवस्तु, तेमां झूकेली मारी चेतना, ते चेतनामां
भवनो भाव नथी.–मारुं लक्षण ज्ञानचेतना छे.
भाई, ते रागादिने पोतानां मान्या त्यांसुधी अज्ञानभावे तेनुं कर्तुत्व छे; पण
ज्यां भेदज्ञान करीने, रागथी अत्यंत भिन्न एकला चेतकस्वभावे पोते पोताने
अनुभव्यो त्यां तारा ज्ञानमां अज्ञान न रह्युं ने रागनुं कर्तापणुं पण न रह्युं. तारामां
तेनुं अस्तित्व ज नथी एटले ते रागादि पण अभेदपणे पुद्गलमां ज नांखी दीधा. ने
रागना कर्तुत्वथी छूटीने, ज्ञान ज्ञानमां ज केलि करतुं–करतुं मोक्षना मारगे चाल्युं.
अहा, कुंदकुंदाचार्यदेवना हदयनां अमृत, अमृतचंद्राचार्यदेवे समयसारमां खुल्ला
मुकया छे. ज्ञानीनी परिणतिमां तो आवी ज्ञानचेतनानां अमृत वहे छे; तेमां रागनो
कोई अंश समाय नही. आवी ओळखाण कर्यां वगर ज्ञानीने खरखेर ओळखाय नहीं.
ज्ञानी तो कहे छे के हुं मारा आनंदमां व्यापनारो छुं, तेमां वरसनारो छुं ; मारुं
व्याप्य–स्थान तो मारा ज्ञान–आनंद वगेरे शुद्ध परिणामो छे. रागादि बाह्यभावोमां
कांई मारुं रहेठाण नथी, केमके ते भावो मारी चेतनानी जातना नथी. सविकल्पदशा हो
के निर्विकल्पदशा हो–गमे त्यारे धर्मी पोताना आत्माने ज्ञानादि अनंत निर्मळभावोमां
ज व्यापेलो जाणे छे, ने ते निर्मळ भावनो ज ते कर्ता थाय छे. रागादि कोई भावोनो ते
कर्ता थतो नथी, सविकल्पदशा वखतेय धर्मी कांई ते विकल्पनो कर्ता थतो नथी, ते वखते
विकल्पथी जुदुं वर्ततुं जे ज्ञान, तेनो ज ते कर्ता थाय छे. धर्मी रागने जाणे भले पण ते
रागनो कर्ता थतो नथी, ते रागना ज्ञाननो ज कर्ता थाय छे.
आवी ज्ञानचेतनारूपे परिणमेला ज्ञानीने मरणनी बीक शी? देहमां हुं रह्यो ज
नथी पछी मने मरण केवुं? हुं तो मारी चेतनापरिणतिमां ज रह्यो छुं.–आवी