Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : ५ :
छे एवा ज्ञानीना चिह्ननी आ वात छे. अहा, हुं तो परम शांत चेतनतत्त्व, मारामां
हर्ष–शोकनुं वेदन केवुं? के राग–द्धेषनुं कर्तापणुं मारामां केवुं? ज्ञानचेतनारूप थयेलो हुं–
तेमां कोई कर्मचेतना के कर्मफळचेतना नथी. चेतनामां ते नथी माटे तेने पुद्गलमय
कह्या छे. भले ते अरूपी विकारी परिणाम छे, पण तेनो समावेश धर्मीनी ज्ञानचेतनामां
थतो नथी, माटे तेने अचेतन–पुद्गलमय कही दीधा; ते अचेतन होवाथी पुद्गलनी ज
जात छे, चेतननी जात ते नथी.
अहा, जुओ तो खरा आ धर्मीनुं भेदज्ञान! पोताना चेतनभाव सिवाय बीजे
बधेथी तेनी सुखबुद्धि ऊडी गई छे. हवे तेनी चेतना पोताना स्वभावसन्मुख थईने
पोताना ज्ञान–सुख–श्रद्धा वगेरे निर्मळभावोने ज करे छे ने पोताना ते
निर्मळकार्यमां ज धर्मीजीव कर्तापणे तन्मय थईने व्यापे छे. पण चेतनथी विरुद्ध
एवा रागादि कोईपण भावोने ते पोतानी साथे तन्मयरूप जाणतो नथी, तेनो कर्ता
थतो नथी, तेमां व्यापतो नथी. आवुं जे ज्ञान अने रागनुं अत्यंत भिन्न परिणमन
ते ज्ञानीनुं लक्षण छे.
ज्ञानीनुं लक्षण एटले ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न, ते तो ज्ञानमय ज होय ने!
ज्ञानीनुं लक्षण कांई रागमय न होय. केमके ज्ञानने अने रागने एकबीजामां व्यापक–
व्याप्यपणुं नथी, बंनेने विलक्षणपणुं छे. ज्ञान शुचीरूप छे ने राग अशुची छे, ज्ञान तो
आत्माना चेतनस्वभावथी अविपरीत वर्ततुं थकुं स्व–परने जाणनार छे, त्यारे
रागादिभावो तो आत्माना चेतनस्वभावथी विपरीत वर्तता थका स्व–परने जाणता
नथी, तेओ पोते पोताने जाणना नथी, पण तेनाथी बीजो (एटले के ज्ञानस्वभावी
जीव ज) तेने जाणे छे; ज्ञान तो निराकुळ वर्ततुं थकुं शांत–अनाकुळ–सुखनुं कारण छे,
रागादिभावो तो आकुळतामय होवाथी दुःखना कारण छे.–आम अत्यंत विवेकथी बंनेनुं
स्पष्ट जुादापणुं जाणीने ज्ञानी पोताना ज्ञानभावरूप परिणम्यो छे, ने रागादि
परिणमनथी तेनी ज्ञानपरिणति पाछी वळी गई छे,–छूटी पडी गई छे. तेनुं ज्ञान हवे
ज्ञानरूप ज रहे छे ने तेमां रागादिनो अभाव ज छे. तेथी ते ज्ञान अस्रवोथी छूटयुं छे
ने मोक्षमार्गमां परिणम्युं छे. आवुं ज्ञानपरिणमन ते ज ज्ञानीनुं कार्य छे, ते ज ज्ञानीनुं
चिह्न छे, तेना वडे ज ज्ञानी ओळखाय छे.
ज्ञानीना ज्ञानभावमां कर्मनुं के रागादिनुं तो कर्तापणुं छे ज नहि; पण ज्ञानी
आत्मा कर्ता अने ज्ञान तेनुं कार्य एम कर्ता–कर्मना भेद पाडवा ते पण व्यवहार छे.
अभेद आत्मानी अनुभूतिमां कांई ‘हुं कर्ता ने ज्ञान मारुं कार्य’ एवा भेद के विकल्प
रहेता नथी. अहीं ज्ञानीनुं लक्षण एटले के ज्ञानीनुं कार्य समजाववा माटे