हर्ष–शोकनुं वेदन केवुं? के राग–द्धेषनुं कर्तापणुं मारामां केवुं? ज्ञानचेतनारूप थयेलो हुं–
तेमां कोई कर्मचेतना के कर्मफळचेतना नथी. चेतनामां ते नथी माटे तेने पुद्गलमय
कह्या छे. भले ते अरूपी विकारी परिणाम छे, पण तेनो समावेश धर्मीनी ज्ञानचेतनामां
थतो नथी, माटे तेने अचेतन–पुद्गलमय कही दीधा; ते अचेतन होवाथी पुद्गलनी ज
जात छे, चेतननी जात ते नथी.
पोताना ज्ञान–सुख–श्रद्धा वगेरे निर्मळभावोने ज करे छे ने पोताना ते
निर्मळकार्यमां ज धर्मीजीव कर्तापणे तन्मय थईने व्यापे छे. पण चेतनथी विरुद्ध
एवा रागादि कोईपण भावोने ते पोतानी साथे तन्मयरूप जाणतो नथी, तेनो कर्ता
थतो नथी, तेमां व्यापतो नथी. आवुं जे ज्ञान अने रागनुं अत्यंत भिन्न परिणमन
ते ज्ञानीनुं लक्षण छे.
व्याप्यपणुं नथी, बंनेने विलक्षणपणुं छे. ज्ञान शुचीरूप छे ने राग अशुची छे, ज्ञान तो
आत्माना चेतनस्वभावथी अविपरीत वर्ततुं थकुं स्व–परने जाणनार छे, त्यारे
रागादिभावो तो आत्माना चेतनस्वभावथी विपरीत वर्तता थका स्व–परने जाणता
नथी, तेओ पोते पोताने जाणना नथी, पण तेनाथी बीजो (एटले के ज्ञानस्वभावी
जीव ज) तेने जाणे छे; ज्ञान तो निराकुळ वर्ततुं थकुं शांत–अनाकुळ–सुखनुं कारण छे,
रागादिभावो तो आकुळतामय होवाथी दुःखना कारण छे.–आम अत्यंत विवेकथी बंनेनुं
स्पष्ट जुादापणुं जाणीने ज्ञानी पोताना ज्ञानभावरूप परिणम्यो छे, ने रागादि
परिणमनथी तेनी ज्ञानपरिणति पाछी वळी गई छे,–छूटी पडी गई छे. तेनुं ज्ञान हवे
ज्ञानरूप ज रहे छे ने तेमां रागादिनो अभाव ज छे. तेथी ते ज्ञान अस्रवोथी छूटयुं छे
ने मोक्षमार्गमां परिणम्युं छे. आवुं ज्ञानपरिणमन ते ज ज्ञानीनुं कार्य छे, ते ज ज्ञानीनुं
चिह्न छे, तेना वडे ज ज्ञानी ओळखाय छे.
अभेद आत्मानी अनुभूतिमां कांई ‘हुं कर्ता ने ज्ञान मारुं कार्य’ एवा भेद के विकल्प
रहेता नथी. अहीं ज्ञानीनुं लक्षण एटले के ज्ञानीनुं कार्य समजाववा माटे