Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : आसो: २४९८
पर्यायमां थोडा राग–द्धेष के हर्ष–शोक परिणाम छे तेनुं कर्ता–भोकतापणुं तेनी
चेतनामां नथी, ते तो चेतनाथी बहार छे. धर्मी तो आनंदमय चेतनारूपे ज पोताने
करे–भोगवे छे.
ज्ञानचेतनारूप थयेलो एक भोकता, ते परस्पर विरुद्ध बे भावोने केम भोगवे?
अतीन्द्रिय आनंदने पण भोगवे ने हर्ष–शोकने पण भोगवे एम बे भावोनुं ज्ञानीने
भोकतापणुं नथी; तेनी चेतनामां परम आनंदनो ज भोगवटो छे, तेमां
कर्मफळचेतनानो तद्न अभाव छे. ज्ञानचेतनामां सर्वत्र वीतरागीआनंद ज भर्यो छे,
ज्ञान चेतनामां क््यांय हर्ष–शोक जरापण व्याप्या नथी. हर्ष–शोकने जाणती वखते पण
ज्ञानचेतना तो ज्ञानचेतनारूप ज रहे छे, हर्ष–शोकरूप थती नथी. ज्ञानचेतना ते
ज्ञानीनो भाव छे, हर्ष–शोकादि ते ज्ञानीना भाव नथी, ज्ञानीनी चेतनामांथी ते नीकळ्‌या
नथी, एटले तेना वडे ज्ञानी ओळखातो नथी. अज्ञानीना अज्ञानभाव साथे रागादिने
कर्ता–कर्मपणुं छे तेमज हर्षादिनुं भोकता–भोग्यपणुं छे, पण ज्ञानीना ज्ञानभावमां तो
रागादिनुं के हर्षादिनुं कर्ता–भोकतापणुं नथी. ज्ञान–ज्ञेयपणा सिवाय ज्ञानीना ज्ञानने
रागादि साथे बीजो कोई संबंध नथी. चैतन्यगोळो रागादिथी छूटो पडी गयो–ते
ज्ञानीना चैतन्यभावनी शी वात? ए चैतन्यभावने जगतना कोई राग–द्धेष–हर्ष–
शोक–कर्म स्पर्शी शके नहि, ते बधा परभावोथी उपरने उपर तरतो छूटो आनंदमय
चैतन्यगाळो,–ते रूपे ज ज्ञानी पोताने अनुभवे छे. चैतन्य पासे रागनी के हर्षनी कांई
ज किंमत नथी. गमे तेवी अनुकूळता के प्रतिकूळता वच्चे पण ज्ञानीनो चैतन्यगोळो
भीसंतो नथी, छूटो ने छूटो रहे छे. कोण देखशे ज्ञानीना आ भावने? जेनुं ज्ञान
रागथी–हर्ष–शोकथी छूटुं पडे ते ज आवा ज्ञानीने ओळखी शके छे. अहो! निर्विकल्प
द्रष्टिनी ज आ ताकात छे के परभावोथी भिन्न ज्ञानानंदस्वभावरूप अचिंत्य अद्भूत
परमतत्त्वने पोतामां देखे छे; विकल्पमां के ईन्द्रियज्ञानमां एवी ताकात नथी के आवा
अद्भूत परमस्वभावी आत्माने देखी शके. अहा, केवडी मोटी चैतन्यचीज अंदर पडी
छे! एने भेटवा एनी सन्मुख थवुं पडशे. रागनी सन्मुखता वडे ‘आवडो मोटो’
चैतन्यप्रभु क््यांथी देखाय? रागथी जुदो पडीने आवडा महान चैतन्यप्रभुनी सन्मुख जे
थयो ते तो केवळज्ञान लेवा माटे ऊपड्यो....एवो ऊपड्यो के हवे आनंद करतो–करतो
अल्पकाळमां केवळज्ञान लेवानो छे....छे....छे.