: आसो: २४९८ आत्मधर्म : ९ :
मारो आत्मा
हुं मारा स्वभावनी एकत्वभावनारूपे परिणम्यो छुं.
हमणां–हमणां नियमसारना प्रवचनमां गुरुदेवना
भावो खूब खूब खीली रह्या छे....ने शुद्धात्मभावनामां
मुमुक्षुने एकतान करीने अध्यात्मसुखनी कोई अनेरी
नगरीमां लई जाय छे. वाह! जाणे कुंदकुंदप्रभु साक्षात्
पधार्या होय, आत्मशोधक मुमुक्षु जीव तेमने पूछतो होय के प्रभो!
मारो शुद्धात्मा केवो छे ते मने बतावो! अने कुंदकुंदप्रभु निजवैभव
खोलीने तेने शुद्धात्मा देखाडता होय! एवी सरस रचना छे.
श्री कुंदकुंदस्वामी कहे छे के अहो! आवा अचिंत्य गंभीर
महिमावंत एकत्व–विभक्त स्वरूपने हुं मारा आत्मवैभव वडे देखाडुं
छुं.....में परमात्मा पासेथी साक्षात् सांभळ्युं छे, ते स्वसंवेदनथी जाते
अनुभव्युं छे, ते स्वरूप हुं तने देखाडुं छुं, तो तुं पण तरत ज
स्वानुभव वडे तारा स्वरूपने प्रत्यक्ष करजे. बीजे क््यांय अटकीश
नहीं; तरत अंदर ऊतरीने तारा आत्माना अचिंत्य अपार वैभवने
प्राप्त करी लेजे.–ऋषभदेवना जीवनी जेम.
(सोनगढ सोसायटीमां भाईश्री पोपटलाल धारशीना मकानना वास्तुप्रसंगे,
पू. गुरुदेवनुं प्रवचन : नियमसार गा. १०२, भाद्र वद २)
ज्ञान–दर्शनलक्षणथी परिपूर्ण, अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप अने शाश्वत एवो
आत्मा एक ज मारो छे, संयोगलक्षणवाळा बीजा बधाय भावो माराथी बहार छे, ते