Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : आसो: २४९८
कोई मारुं स्वरूप नथी–एम धर्मी पोताना एकत्वस्वरूपने अनुभवे छे.–तेनुं वर्णन
आचार्यदेव आ गाथामां करे छे.
मारो सुशाश्वत एक दर्शन–ज्ञानलक्षण जीव छे,
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्ये छे. (१०२)
ज्ञानलक्षण वडे आत्माने प्रत्यक्ष करीने धर्मी जाणे छे के हुं तो ज्ञानदर्शन
लक्षणथी परिपूर्ण, शाश्वत, एक आत्मा छुं. अन्य समस्त भावो मारा ज्ञानलक्षणथी
बहार छे, ते कोई हुं नथी. अहो, आवा स्वसंवेघ आत्मामां भवना कारणरूप कोई
भावो नथी, तो मारे भव केवा? ने शरीर केवुं? आम शरीरादिथी भिन्न एकत्व
आत्माने अनुभवे छे.
ज्ञानदर्शनलक्षणमां तो अतीन्द्रिय आनंद छे; आवा अतीन्द्रियस्वभावने स्पर्श्या
विना, अनुभव्या विना जीव शुभाशुभभावथी चारगतिमां शरीर धारण करी करीने
एकलो संसारमां भमी रह्यो छे. श्रीगुरुना उपदेशअनुसार आत्माने जाणीने भव्य जीव
समस्त शुभाशुभने पोतानी बहार जाणीने अतीन्द्रिय आनंदमां घूसी जाय छे ने
एकलो–एकलो मोक्षसुखने साधे छे. धर्मी जाणे छे के अहो, हुं तो मारा आनंदमां छुं,
एकलो–एकलो हुं मारा आत्मामां आनंदरूपे परिणमुं छुं. मारो आत्मा तो मारा
आनंदमां छे. मारा ज्ञान–दर्शन–आनंदमां कोई पण रागादि भावोनो प्रवेश नथी. आ
रीते चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने एकत्वभावनारूपे परिणमेला ज्ञानी एकला–
एकला अनुभवना सुखने भोगवता–भोगवता मोक्षने साधे छे.
अहा, मारी चैतन्यवस्तु! तेने श्रीगुरुना प्रसादथी में कोई पण प्रकारे प्राप्त करी
छे, हवे तेना सहज अतीन्द्रियसुखने भोगवतो थको तेने ज हुं उपादेय करुं छुं. अहा,
मारा आ चैतन्यसुख पासे शुभाशुभविकल्पो ए तो बधा आडंबर छे, मारा स्वरूपथी
ते बाह्य छे.
मारी चैतन्यवस्तु ज्ञानदर्शनलक्षणरूप छे; ज्ञानदर्शनमय चेतनामां रागादि
भावकर्म केवा? मारी चेतनामां रागादि भावकर्मो के द्रव्योकर्मो नथी, तो तेना फळरूप
शरीर मारामां केवुं? मारा चैतनलक्षण पणे हुं सदा शाश्वत एकरूप रहेनार छुं.–आवुं
एकत्वस्वरूप श्री परमगुरुद्वारा प्राप्त थयुं, एटले पोताना एकत्वस्वभावनो निश्चय
थयो, ने समस्त परभावोने पोतानी चेतनाथी बहार जुदा जाण्या.
भाई, आ आत्मानी एकत्वभावना सिवाय बीजुं बंधुय संसारनुं ज कारण छे.