आचार्यदेव आ गाथामां करे छे.
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्ये छे. (१०२)
बहार छे, ते कोई हुं नथी. अहो, आवा स्वसंवेघ आत्मामां भवना कारणरूप कोई
भावो नथी, तो मारे भव केवा? ने शरीर केवुं? आम शरीरादिथी भिन्न एकत्व
आत्माने अनुभवे छे.
एकलो संसारमां भमी रह्यो छे. श्रीगुरुना उपदेशअनुसार आत्माने जाणीने भव्य जीव
समस्त शुभाशुभने पोतानी बहार जाणीने अतीन्द्रिय आनंदमां घूसी जाय छे ने
एकलो–एकलो मोक्षसुखने साधे छे. धर्मी जाणे छे के अहो, हुं तो मारा आनंदमां छुं,
एकलो–एकलो हुं मारा आत्मामां आनंदरूपे परिणमुं छुं. मारो आत्मा तो मारा
आनंदमां छे. मारा ज्ञान–दर्शन–आनंदमां कोई पण रागादि भावोनो प्रवेश नथी. आ
रीते चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थईने एकत्वभावनारूपे परिणमेला ज्ञानी एकला–
एकला अनुभवना सुखने भोगवता–भोगवता मोक्षने साधे छे.
मारा आ चैतन्यसुख पासे शुभाशुभविकल्पो ए तो बधा आडंबर छे, मारा स्वरूपथी
ते बाह्य छे.
शरीर मारामां केवुं? मारा चैतनलक्षण पणे हुं सदा शाश्वत एकरूप रहेनार छुं.–आवुं
एकत्वस्वरूप श्री परमगुरुद्वारा प्राप्त थयुं, एटले पोताना एकत्वस्वभावनो निश्चय
थयो, ने समस्त परभावोने पोतानी चेतनाथी बहार जुदा जाण्या.