तेमा बीजा कोई परभावनो प्रवेश नहि;–आवा एकत्वभावनामां रागादि परभावनो
अभाव छे, कर्मनो अभाव छे, शरीरनो अभाव छे, एटले संसारनो अभाव छे. अहा!
आवा एकत्वस्वरूपने पामीने तेमां जे स्थित रहे छे, तेनो अवतार धन्य छे! एणे
संसारनी जेलनां बंधन तोडी नांख्या, ने चैतन्यना महान आनंदने पोतामां
अनुभव्यो.–मोक्षनगरीमां तेनो प्रवेश थयो....चारगति करतां जुादी एवी नवी गति
तेणे प्राप्त करी.....अहा, सिद्धगतिना महिमानी शी वात! ए तो अनुपम छे; जन्म–
मरण वगरनी धु्रव छे. आवी अपूर्व सिद्धगति अंतरमां एकत्वस्वभावनी भावनावडे
पमाय छे.
परभावथी खाली छे. तीर्थंकर परमात्मा सीमंघरभगवान समवसरण–सभामां ईन्द्रो
अने गणघरोनी हाजरीमां आवा एकत्वस्वभावनी वात संभळावे छे; ते एकत्वस्वभाव
सांभळतां ईन्द्र तेना अचित्य महिमा पासे ईन्द्रपदने पण साव तूच्छ गणे छे, ने आव
एकत्वस्वभावने परम भक्तिथी आदरीने ते पण एकावतारी थाय छे.
सांभळ्युं छे ने स्वसंवेदनथी जाते प्रत्यक्ष अनुभव्युं छे, ते स्वरूप हुं तने देखाडुं छुं, तो
तुं पण तरत ज स्वानुभववडे तारा स्वरूपने प्रत्यक्ष करजे. बीजे क््यांय अटकीश नहीं,
तरत कअंदर ऊतरीने तारा एकत्वस्वरूपना अचिंत्य अपार वैभवने प्राप्त करी लेजे.
शाश्वतपणे ज्ञानदर्शनलक्षणमां रहेलो छे,–तेना ज्ञानदर्शनलक्षणमां रागनी–कर्मनी के
शरीरनी कोई उपाधि नथी, त्रणेकाळ ते निरूपाधि छे; त्रणेकाळे निरावरण एवा
ज्ञानदर्शनस्वभावथी लक्षित आत्मा छे.–ते एक ज हुं छुं–एम अंतर्मुख पर्यायवडे
धर्मीजीव पोताना एकत्वस्वभावनी भावनारूपे परिणम्या छे. अहो! आवा भावना ते
सम्यग्दर्शननी रीत छे, आवी भावनामां अतीन्द्रियसुख छे, ने आवी भावना ते
भवना नाशनुं कारण छे, ते ज मोक्षपुरीनो पंथ छे. जेणे आवी भावना भावी तेणे
सादि–अनंतकाळ आनंदमय स्वघरमां वास्तु कर्युं.