Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : २३ :
अनुभवतो थको मुक्तिना महा आनंदने प्राप्त करे छे.
धर्मात्मा कहे छे के विभावो अस्त होवाथी तेनी अमने चिंता नथी, केमके
अमारी परिणति तेनाथी छुटी पडीने परमस्वभाव तरफ ढळी गई छे. परमभावनी
अनुभूतिमां तो विभाव असत् ज छे. आ रीते परमभाव होवा छतां अंतद्रष्टिवाळो
सम्यग्द्रष्टिजीव पोताने एक परम शुद्ध ज्ञानवस्तुपणे ज भजे छे; एटले पोतानो
परमभाव तेने सफळ थयो छे, ते आसन्नभव्य छे.
घरमां मोटी अखूट मूडी भरी होय पण भोगवे नहि तो शा कामनी? तेम
स्वभावमां शक्ति होवा छतां, तेनी सन्मुख थईने पर्यायमां प्रगट न करे तो ते शा
कामनी? एक नगरशेठ–जेने त्यां अत्यंत किंमती महा रत्नोना ढगला पड्या हता, पण
अनंता लोभवश एक लाकडुं लेवा पाणीमां तणातो हतो, तेम नगरशेठनी जेम आ
आत्मा तो दुनियानो शेठ, जगतमां श्रेष्ठ–जेना घरमां अनंत गुणना महा रत्नोनो
ढगलो छे, पण एने भूलीने रागमां–देहमां मूर्छायेलो अज्ञानी, अचिंत्य निजनिधानने
भोगवी शकतो नथी. अहा, मारो परमस्वभाव मारामां सदा विद्यमान छे–नित्य छे, ते
नित्यतानो निर्णय करतां निर्विकल्पता थई जाय छे. विकल्पमां ऊभो रहीने
नित्यस्वभावनो निर्णय थई शकतो नथी. उदयादि चार भावो–तेमना लक्षे पंचम
परमभाव प्रतीतमां आवी शकतो नथी. परमस्वभावने प्रतीतमां लेनारो भाव पोते
उपशम–क्षयोपशम के क्षायकरूप छे; पण ते विशेषभावोना भेद उपर तेनुं लक्ष नथी,
पर्यायना भेदना आश्रये पंचमभाव अगोचर छे; अंर्तस्वभावमां पर्याय वळी त्यारे ते
स्वाधीन परिणामवडे पंचमभाव अनुभवगोचर थयो. भव्य जीवोने आवा अनुभववडे
परमभावनी सफळता थई एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप फळ तेने पाक््यां
झेरीफळवाळुं कर्मवृक्ष तेने छेदाई गयुं, अने सम्यक्त्वादि अमृतफळवाळुं चैतन्यवृक्ष तेने
सफळ थयुं. –आनुं नाम आलोचना छे, आ मोक्षनो मार्ग छे, आ आनंदमय स्वघरमां
सादि–अनंत वास्तु छे.
जगतमां सौथी मोटो कोण? के मारो परमस्वभाव एक ज सौथी मोटो छे.–
केवळज्ञानादि पण तेना ज आश्रये थाय छे. आवा परमस्वभावने अहीं खुल्लो कर्यो छे
अहो, आ तो कुंदकुंदाचार्यदेवनां शास्त्रो! एनी शी वात! तीर्थंकरभगवंतोए
दिव्यध्वनिमां जे अर्थरूपे कह्युं, गणधर भगवाने जे झीलीने श्रुतरूपे शास्त्रमां गूथ्युं,
अने तेमनी परंपरामां वीतरागी संतोए अनुभवीने जे कह्युं–ते आ परम तत्त्व छे.
आवुं तत्त्व कोई महा भाग्ये सांभळवा मळे छे. ‘अहो, आवा परमभाव