Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : आसो: २४९८
सम्यग्द्रष्टि जीव परिणाममां सविकल्प अने निर्विकल्प बन्ने भावे परिणमे छे.
सविकल्प दशा वखतेय तेने आत्मानां सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान तो रहे ज छे. सम्यक्द्रष्टि
आत्माने शुभाशुभ भावो वर्ते छे तोपण तेने अंदर तो श्रद्धान होय ज छे के ‘आ कार्य
मारां नथी, पर वस्तुनो हुं कर्ता नथी; ने राग साथे मारी चेतनवस्तु एकमेक नथी. ’ ते
पोताना ज्ञानने राग साथे एकमेक नथी करतो; सदाय बंनेने भिन्न ज जाणे छे. ते
रागादिने जुदा जाणतो थको तेनो कर्ता थतो नथी पण तेनो ज्ञाता ज रहे छे.
सम्यग्द्रष्टिने अनुभवमां बहु ज आनंद आवे छे. ते श्रुतज्ञान द्धारा केवळज्ञान
साथे केलि करे छे–तेम कह्युं छे. तेना ज्ञाने राग साथे मित्रता (एकत्व) छोडीने
केवळज्ञानस्वभाव साथे मित्रता करी छे ने केवळज्ञानने साद पाडीने बोलाव्युं छे.
ज्ञानने आत्मसन्मुख करतां, निजरसथी भरेलो, परनी अपेक्षाए अरस,
आत्मा तेने साचा स्वरूपे वेदाय छे. ते आत्मा कोई नयपक्ष वडे खंडित थतो नथी;
ज्ञानीनुं ज्ञान हंमेशा विकल्पोथी ने संयोगोथी जुदुं ज रहे छे. विकल्प होवा छतां
विकल्पोथी भिन्न परिणमतुं आ ज्ञान एवुं छे के विकल्पातीत थईने जीवने ठेठ मोक्ष
सुधी पहोंचाडे ज छे.
भेदज्ञान थतां आ जीव सकळ विकारनां कर्तृत्वरहित थई ज्ञाकयपणे शोभे छे.