वळतोजाय छे. सम्यक्ज्ञानी असार अने अशरण एवा संसारथी पाछो वळे छे, ने
परमसारभूत शरणरूप एवा पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ झूके छे. भेदज्ञान थतां
चैतन्यपरमेश्वर पुराणपुरुष प्रकाशमान थाय छे, अने अतीन्द्रिय शांतिसहित ज्ञानज्योति
झळहळी ऊठे छे. आवुं सम्यग्दर्शन छे–ते आत्मा ज छे. आ सम्यग्दर्शन थतां विकल्प
तूटीने उपयोग स्वतरफ वळे छे, एटले भेदज्ञान थई प्रमाणज्ञान थई गयुं छे, पछी हवे
तेनो उपयोग पर तरफ जाय त्यारे पण ते भेदज्ञान–प्रमाण तो साथे ने साथे ज वर्ते छे.
विकल्पथी छूटुं पडीने चेतन्यमां तन्मय थयेलुं ज्ञान फरीने कदी विकल्पमां एकमेक थतुं
नथी, छुटुं ने छुटुं रहे छे तेथी तेने मुक्त कह्युं छे: ‘
चैतन्यनी परमशांति पासे पुण्य–पापना भावो तेने भठ्ठी जेवा लागे छे. सम्यक्द्रष्टिने
ओळखाणपुर्वक जेवुं बहुमान साचा देव–गुरु–शास्त्र उपर होय तेवुं मिथ्याद्रष्टिने होतुं
नथी. सम्यग्द्रष्टिना व्यवहारपरिणाम पण चारे पडखेथी मेळवाळा होय छे.
मृत्यु वगेरे संबंधी सात भय होता नथी. ज्ञानचेतनारूप थयेलो होवाथी ते कर्मोने तेम
ज कर्मनां फळने पोताथी अत्यंत भिन्न जाणे छे.
सुंदर ने वळी सुखी छे;
मित्रो मानी लेजो सर्वे,
के व ळी नी वा त छे .
जेमां अमृत वहेण छे;
स्वीकारी तुं आज ले,
तो मुक्ति तारी काल छे.