सम्यग्दर्शन थतां पहेलांं आत्मसन्मुख जीवनी रहेणीकरणी तथा विचारधारा
तेवी तैयारीवाळा जीवे सौथी प्रथम पोताना ज्ञानस्वभावनो महिमा लक्षमां लेवो
जोईए. हुं एक आत्मद्रव्य छुं, मारामां ज्ञान छे, ने मारा ज ज्ञानवडे हुं मारा आत्मानुं
भान करी शकुं छुं, –तेवा प्रकारनी भावनाथी, प्रथम ज्ञान केवी रीते प्राप्त करवुं ते
विचारे छे. ते माटे कोई ज्ञानी पासे रहीने अगर तो गुरुगमअनुसार पोते
सत्शास्त्रोनो जेम बने तेम जिज्ञासु थईने अभ्यास करे छे, एटले के तत्त्वोनो बराबर
अभ्यास करे छे. शास्त्रमां कह्युं छे के ‘तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्’ तेथी जीवादि सात
तत्त्वोने जेम छे तेम जाणवा एटले के जीवने जीव तरीके, अजीवने अजीव तरीके, पुण्य–
पाप–आस्त्रवने आस्त्रव तरीके–एम साते तत्त्वोने बराबर जाणी श्रद्धा करवी.
सम्यग्दर्शन थवामां प्रथम आ सात तत्त्वनी ओळखाण खास जोईए. आसात तत्त्वनुं
स्वरूप विचारतां समुच्चयपणे विकल्पनो रस तूटे छे ने चैतन्यनो रस घूंटाय छे, एटले
आत्मानी परिणति स्वभाव तरफ उल्लसती जाय छे. ते वखते पोताना विचारो एटले
आत्मानुं मनन करतां हुं एक आत्मा छुं, ज्ञायक छुं, सिद्ध छुं, बुद्ध छुं–ईत्यादि विचार
होय; अगर तो अतीन्द्रिय छुं, सर्वथी भिन्न छुं, ज्ञान मारो स्वभाव छे, राग मारो
स्वभाव नथी,–एवा स्व अने परनी भिन्नताना विचार होय; अगर तो आत्मानी
अनंती शक्तिओना विचार होय. एवी रीते अनेक प्रकारथी आत्माना महिमाना अने
स्व–परना भेदज्ञानना विचारो होय छे. एम कोई पण प्रकारे पोताना स्वभाव तरफ
झुकवाना विचार होय छे. आवी रीते ज्यारे अंतरनी कोई अद्भूत उग्र धारा स्वभाव
तरफनी ऊपडे छे ते वखते पछी बधा प्रकारना विकल्पो शांत थवा मांडे छे, ने
चैतन्यरस घूंटतो जाय छे. ते वखते विशुद्धताना अति सूक्ष्म परिणामोनी धारावडे
अंतरमां त्रण करण थई जाय छे; ए त्रणकरणना काळे जीवना परिणाम स्वरूपना
चिंतनमां वधुने वधु मग्न थता जाय छे. आ रीते आत्माना स्वरूपमां मग्न थतां
निर्विकल्पदशा थईने परमशांत अनुभूतिवडे जीव पोते पोताने साक्षात् अनुभवे छे...
आनुं नाम सम्यग्दर्शन.