Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : ३१ :
अगर तो विशेषता करी एकांतमां आत्मचितन करवानी होय छे. आवी बहारनी
पण तेथी प्रवृत्ति होय छे अने अंतरमां स्वभावना रसनुं घोलन होय छे. आवा
जीवने प्रथम उपशम सम्यक्त्व थाय छे, पछी क्षयोपशम अने क्षायिक सम्यक्त्व थाय
छे. पछी अल्पकाळमां ते संसारपरिभ्रमणथी छूटीने सम्यक्त्वना प्रतापे अपूर्व
मोक्षसुख पामे छे. माटे मोक्षार्थीए आवा सम्यक्त्वनी भावना भाववी, अने सर्व
उधमथी ते प्रगट करवुं.
• • •
हवे, श्रावकोए पहेलांं तो सुनिर्मल सम्यक्त्व प्रगट करवुं. अत्यंत निर्मळ अने
मेरूसमान निष्कंप एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करीने तेनुं निरंतर ध्यान करवुं. चल मल
अने अगाढ दोषरहित एवुं अचल निर्मळ अने द्रढ सम्यग्दर्शन प्रगट करीने दुःखना
क्षय माटे तेने ज ध्यानमां ध्याववुं. जेम महा संवर्तक वायराथी पण मेरूपर्वत डगतो
नथी तेम जगतनी गमे तेवी प्रतिकूळताथी पण सम्यग्द्रष्टिनुं श्रद्धान डगे नहि; देवो
परीक्षा करवा आवे तोपण सम्यक्त्वथी डगे नहि. श्रावके आवुं द्रढ सम्यक्त्व ग्रहण
करी निर्विकल्प आनंदनो फरीफरी अनुभव करवो,–जेथी दुःखनो क्षय थाय. दुःखनो क्षय
करवा अचलपणे द्रढपणे सम्यक्त्वने निरंतर ध्यावो–एटले के शुद्ध आत्माने ध्यावो.
गृहस्थपणामां जे क्षोभ–कलेश–दुःख होय ते आवा सम्यक्त्वना परिणमनवडे नाशी
जाय छे. जुओ, आ दुःखना नाशनो उपाय! आवुं सम्यकत्व प्राप्त थवाथी धर्म थाय
छे, ने आत्मामां निर्मळता वधती जाय छे. गमे तेवा उपसर्गो आवी पडे पण आवा
सम्यक्त्वथी अंदर शुद्धात्मा उपर ज्यां नजर करे त्यां धर्मात्मा आखा संसारने भूली
जाय छे. आवुं सम्यक्त्व प्राप्त थया पछी तेणे पण सर्वज्ञअनुसार सर्वे वस्तुनुं स्वरूप
यथार्थ जाण्युं छे, तेथी हवे बहारनां कोई पण कार्यो बगडे के सुधरे पण ते पोताना
सम्यक्त्वथी डगतो नथी. आवी सम्यक्त्वनी निष्कंपतावडे निशंकपणे यथार्थ
वस्तुस्वरूप चिंतवे छे के सर्वज्ञदेवे वस्तुनुं स्वरूप जे रीते जाण्युं छे ते ज रीते तेनुं
परिणमन थाय छे; कोई तेने फेरववा समर्थ नथी. माटे तेना परिणमनमां ईष्ट–
अनिष्टपणुं मानीने राग–द्धेषी थवुं ते निरर्थक छे. परनुं परिणमन परने आधारे छे,
तेमां मने कंई ईष्ट के अनिष्ट नथी, एटले तेमां क््यांय राग–द्धेष करवानुं मारुं काम
नथी, हुं तो मात्र ज्ञानस्वभावी छुं. आवी वस्तुना स्वरूपनी भावनाथी दुःख मटे छे,–
ते प्रत्यक्ष अनुभवगोचर छे. माटे श्रावके दुःखना क्षयना अर्थे सम्यक्त्व ग्रहण करीने
मेरू जेवी द्रढताथी तेने निरंतर भाववुं, ध्याववुं. गृहस्थपणामां रहेला श्रावके पण
चैतन्यनुं निर्विकल्प ध्यान करवुं–जेथी