Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : ३ :
ज्ञानीना लक्षणमां जे समाय ते ‘चेतनभाव’ छे.
ज्ञानीना लक्षणमां जे न समाय ते ‘अचेतनभाव’ छे.
–राग हो के कर्म हो, –ते बधाने अचेतन तरीके एकपणुं छे, ते कोईने
चैतनलक्षण साथे एकपणुं के कर्ताकर्मपणुं नथी.
* जे आत्मा ज्ञानचेतनारूपे परिणमे छे ते ज्ञानी छे. ते ज्ञानी रागने जाणे छे
त्यारे, ते रागने ज्ञानना कार्यरूपे नथी जाणता, पण ज्ञानथी अत्यंत भिन्नपणे तेने
जाणे छे. त्यां रागथी जुदुं एवुं जे ज्ञान छे ते ज्ञानने ज पोताना कार्यपणे करतो थको
धर्मीजीव ज्ञानना ज कर्तापणे पोताना आत्माने जाणे छे. आत्मा ज्ञानस्वभाव छे, तेनुं
कार्य (तेनुं रहेवानुं स्थान, व्याप्य) तो ज्ञानमय होय, रागमय न होय.
‘ज्ञानमय’ कार्य कहेतां तेमां ज्ञान साथेना आनंद वगेरे अनंतगुणना
निर्मळभावो आवी जाय छे, पण तेमां ज्ञानथी विरुद्ध एवा रागादि कोई भावो आवता
नथी, तेथी तेमने अचेतन कह्या छे. ज्ञानचेतनामां समाय ते बधुं चेतन, ने
ज्ञानचेतनामां जे न समाय ते बधुं अचेतन; तेमां ज्ञानी ज्ञानचेतनारूप थईने तेने ज
करे छे, ने ते ज्ञानचेतनाथी बाह्य एवा रागादि अचेतनभावोने धर्मीजीव पोताना
कार्यपणे करतो नथी. –आवुं जे रागथी भिन्न ज्ञानचेतनारूप परिणमन छे ते ज
ज्ञानीनुं चिह्न छे.–आवा चिह्नथी ज्ञानीने जे ओळखे तेने ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान
जरूर थई जाय छे.
ज्ञान अने राग–बन्नेनी जात ज जुदी, तेमने एकबीजामां भेळसेळ
(व्याप्यव्यापकता) केम होय? धर्मीने ज्ञानचेतनानुं जे वेदन छे तेमां रागनुं वेदन
जराय नथी. वाह, भेदज्ञानवडे बे भागला ज पाडी दीधा: एककोर ज्ञानचेतनारूप
परिणमतुं जीवद्रव्य; बीजीकोर अचेतनरूप पुद्गलद्रव्य. हवे राग–द्धेष–क्रोधादि जे कोई
भावो ज्ञानचेतनामां न समाय ते बधा भावोने अचेतन गणीने पुद्गलद्रव्यमां ज
नांखी दीधा. रागादि कोई भावो,–जेनाथी तीर्थंकरादि कर्मप्रकृति बंधाय ते भाव अने ते
तीर्थंकरप्रकृति पण–ज्ञानचेतना साथे तन्मय नथी, तेथी ते ज्ञानीनुं कार्य नथी, ते तो
ज्ञानथी भिन्न होवाथी अचेतन छे, तेनो समावेश पुद्गलमां थाय छे.–आम भेदज्ञान
वडे बे भाग पाडीने ज्ञान अने रागने जुदा जाणे, त्यारे ज ज्ञानचेतनारूप थयेला
ज्ञानीने खरेखर ओळखी शकाय छे. ज्ञानीना ज्ञानमां रागनुं कर्तापणुं केम नथी अने ते
रागने ‘अचेतन’ केम कह्यो–ए वात भेदज्ञान वडे ज समजाय तेवी