Atmadharma magazine - Ank 349
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’
त्त्त्
प्रसिद्ध छे.
(आसो वद चोथना प्रवचनमांथी)
स्वानुभव – प्रसिद्ध स्वतत्त्वमां नमेला धर्मात्मा संसारना
प्रपंचथी परांग्मुख छे ने आनंदमय मोक्षनी सन्मुख छे.
सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के मारा अंतरमां मारुं सहज तत्त्व आनंदसहित जयवंत
वर्ते छे. मारुं आ सहज तत्त्व मने सदाय सुलभ छे. मारुं शांत – नीराकूळ
चैतन्यप्रकाशी तत्त्व मारी अनुभूतिमां आवी गयुं छे तेथी ते विद्यमान छे, जयवंत छे.
जुओ, आ सम्यग्द्रष्टिनी अनुभूति! अनुभूतिमां अनंतगुणो निर्मळपणे
पोताने दुर्लभ के अप्रसिद्ध केम होय? जाण्युं न हतुं तेथी दुर्लभ अने अजाण्युं लागतुं
हतुं, पण अंतर्मुख थईने हवे जाण्युं के हुं तो आ परमतत्त्व छुं, – त्यां ते पोताने
सुलभ अने प्रसिद्ध थयुं. शास्त्रो जेनो अगाध महिमा वर्णवे छे ते हुं ज छुं – एम
जाणतां पोतानुं तत्त्व पोताने सुलभ थई गयुं – पर्यायमां प्रसिद्ध थई गयुं. ‘अहो,
मारुं आवुं सरस अचिंत्य तत्त्व! ’ एम धर्मी सदाय निजभावना भावे छे....
अचिंत्य महिमा लावीने फरी फरी तेमां उपयोग जोडे छे.
मारुं सहज तत्त्व, वाणी अने मनना मार्गथी अत्यंत दूर छे; तेना स्वीकारमां
मननुं के वाणीनुं अवलंबन जराय नथी. अहा, आवुं अनुभूतिगम्य मारुं तत्त्व.... के
जे स्वानुभूतिवडे मारामां प्रसिद्ध थयुं छे, ते तत्त्वने मनना विकल्पो साथे पण मेळ
नथी, त्यां बहारमां बीजानी शी वात? बहारना जगत साथे मारा अंर्ततत्त्वने कांई
संबंध नथी. अनंत आनंद अने शांतिनुं धाम – एवुं जे स्वघर, तेमां ज मारा सहज
तत्त्वनो वास छे.
अहा, आवुं तत्त्व निरंतर जयवंतपणे पोतामां देख्युं त्यां धर्मीने जगतनी
साथे शुं प्रयोजन रह्युं? अहा, मारा भगवानना मने भेटा थया. – एम सम्यग्द्रष्टिने
पोतानुं निर्मळ परमतत्त्व सदाय पोतामां हाजर वर्ते छे, श्रद्धामां – ज्ञानमां सदाय
प्रसिद्ध वर्ते छे. स्वानुभव–प्रसिद्ध आवा स्वतत्त्वमां नमेला धर्मात्मा जगतना बाह्य
प्रपंचोथी परांग्मुख छे..... ने आनंदमय मोक्षनी सन्मुख छे.