कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’ ९
िनयमसारद्वारा कुंदकुंदाचायर्देवे चैतन्यपरमतत्त्वनी
निजभावनानुं जे ऊंडुंऊंडुं घोलन कर्युं छे तेनो आ सुंदर नमूनो
छे. अहो, अा परमतत्त्वनी िनजभावनानुं घोलन अानंदकारी
छे. अावी िनजभावना – अथेर् ज शास्त्रनी रचना छे.
(नियमसार कळश १४३ थी १प१ ना प्रवचनमांथी)
आत्मानो परम चैतन्यभाव बतावीने आचार्य देव कहे छे के अहो! अमारा
अावा परम स्वभावनी भावना – अथेर्, वारंवार तेना घोलन – अथेर् अा शास्त्र रचायुं
छे. अहो, आवा परम स्वभावनी भावना करवा जेवी छे. रागादि परभावोनी भावना
तो जीवे अनंतकाळथी भावी छे, पण रागथी पार एकला ज्ञायकरसथी भरेला पोताना
परम स्वभावनी भावना जीवे कदी पूर्वे भावी न हती. तेनी भावनामां अपूर्व
अतीन्द्रिय आनंद छे. अहीं ‘भावना’ ते विकल्परूप नथी पण अंदर निर्मळ परिणतिनी
एकाग्रतारूप आ भावना छे; आ भावना ते भवना नाशनुं कारण छे.
कर्मना संबंधवाळा जेटला अशुद्धभावो छे तेनाथी भिन्न पोताना परम शुद्ध
भावने जाणीने तेनी भिन्नतानो जे सदा अनुभव करे छे ते धर्मीजीवने सदाय
परभावना त्यागरूप प्रत्याख्यान छे. आ प्रत्याख्यान – अधिकारमां छेल्ले नव
कळशद्वारा परमतत्त्वनी भावना भावी छे. िनज – भावनामां परम चैतन्यतत्त्वने
फरीफरीने मलाव्युं छे.
चैतन्यनो महा अानंद तो जगतमां प्रिसद्ध छे. ते अानंद सहज चैतन्यतत्त्वनी
भावनामां धर्मीने व्यक्त अनुभवाय छे. अहा, आवा महान आनंद पासे संसारना
कलेशने तो कोण ईच्छे? चैतन्यसुखने चुकीने जेओ विषय – कषायोमां सुख माटे झांवा
नांखे छे तेओ तो जडबुद्धि छे.
अहो, जिनेन्द्रभगवानी वाणी परभावोथी भिन्न, अनंतगुणनुं धाम एवुं
चैतन्यतत्त्व बतावीने तेनी भावना करावे छे. भावना अेटले तेमां अंतमुर्ख पिरणित
थतां जे अद्भुत शांति अनुभवाय छे ते शांति पासे राग – पुण्य के पुण्यनां फळ ए कांई
जीवने जराय ईष्ट लागतुं नथी. पोतानो शांतस्वभाव ज तेने ईष्ट लागे छे, तेने ज ते
भावे छे.