Atmadharma magazine - Ank 349
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’ ९
िद्व र् न्त्त्
निजभावनानुं जे ऊंडुंऊंडुं घोलन कर्युं छे तेनो आ सुंदर नमूनो
. , त्त् ि
. ि र् स्त्र .
(नियमसार कळश १४३ थी १प१ ना प्रवचनमांथी)
आत्मानो परम चैतन्यभाव बतावीने आचार्य देव कहे छे के अहो! अमारा
स् र्, र् स्त्र
छे. अहो, आवा परम स्वभावनी भावना करवा जेवी छे. रागादि परभावोनी भावना
तो जीवे अनंतकाळथी भावी छे, पण रागथी पार एकला ज्ञायकरसथी भरेला पोताना
परम स्वभावनी भावना जीवे कदी पूर्वे भावी न हती. तेनी भावनामां अपूर्व
अतीन्द्रिय आनंद छे. अहीं ‘भावना’ ते विकल्परूप नथी पण अंदर निर्मळ परिणतिनी
एकाग्रतारूप आ भावना छे; आ भावना ते भवना नाशनुं कारण छे.
कर्मना संबंधवाळा जेटला अशुद्धभावो छे तेनाथी भिन्न पोताना परम शुद्ध
भावने जाणीने तेनी भिन्नतानो जे सदा अनुभव करे छे ते धर्मीजीवने सदाय
परभावना त्यागरूप प्रत्याख्यान छे. आ प्रत्याख्यान – अधिकारमां छेल्ले नव
द्व त्त् . ि न्त्त्
फरीफरीने मलाव्युं छे.
न् प्रिद्ध . न्त्त्
भावनामां धर्मीने व्यक्त अनुभवाय छे. अहा, आवा महान आनंद पासे संसारना
कलेशने तो कोण ईच्छे? चैतन्यसुखने चुकीने जेओ विषय – कषायोमां सुख माटे झांवा
नांखे छे तेओ तो जडबुद्धि छे.
अहो, जिनेन्द्रभगवानी वाणी परभावोथी भिन्न, अनंतगुणनुं धाम एवुं
न्त्त् . र् िि
थतां जे अद्भुत शांति अनुभवाय छे ते शांति पासे राग – पुण्य के पुण्यनां फळ ए कांई
जीवने जराय ईष्ट लागतुं नथी. पोतानो शांतस्वभाव ज तेने ईष्ट लागे छे, तेने ज ते
भावे छे.