
गुण त्रिकाळ बधाने छे – पण तेनुं भान त्यारे थयुं के ज्यारे पर्यायमां तेना
थईने तेने श्रद्धे छे – जाणे छे – अनुभवे छे. तेमां वच्चे रागादि विषमभाव नथी एटले
ते परिणाम परम समतारूप छे. परम शांत समता परिणाम वगर चैतन्यप्रभु देखाय
रागरहित वीतरागी समतारूप छे. पर्यायमां स्वभावना आश्रये वीतरागी समतारूप
परिणमन थवा मांडयुं त्यारे खबर पडी के अहो! आवा समतारसनो आखो पिंड हुं छुं.
अनंत स्वभावगुणोथी घेरायेलो – वींटायेलो – व्यापेलो छे. आवा स्वभावमां जे घूसी
गयो तेने आधि –व्याधि – उपाधिनो कोई घेरो रहेतो नथी चैतन्यने भूलेला
अज्ञानीओ संयोगना ने राग–द्वेषना घेराथी घेराई जाय छे; पण, गमे तेवा संयोग हो
अने रागादि पण हो, छतां ते बधाना घेराथी छूटवानो एक ज उपाय छे के
स्वभावघरमां घूसी जवुं, –एम जाणीने ज्ञानी तो निज स्वभावमां घूसी जाय छे. एवा
ज्ञानी कोई संयोगना घेराथी घेराता नथी – मुंझाता नथी – स्वरूपने भूलता नथी.
आवी तो धर्मीना एक निःशंक्ति – अंगनी ताकात छे; ने एवा तो अनंता गुणना
सम्यक्भावो धर्मीने एकसाथे वर्ती रह्या छे.
विकल्पथी पार ज्ञाननी अनुभूतिमां जे आवे छे ते ज पूरुं छे. हे जीव! तुं एकवार
आवी अनुभूतिनो लहावो तो ले. अनुभूतिमां तारा तत्त्वनी कोई अद्भूतता देखतां
तने अजब – गजबनो आनंद थशे.