
आ तारा आत्मानी वात तो सांभळ. तारा आत्मानां गाणां सांभळवानो प्रेमथी
आनंदना रहेठाणमां रह्या छे. कोई सातमी नरकमां रहेलो जीव होय, अंदर
अरे, आ नारकी छे – महा दुःखी छे; – पण भाई! एने नारकी न जाण, ए तो
अंतरमां चैतन्यना महान आनंदधाममां वसनारो ‘देव’ छे –धर्मात्मां छे, जगतमां ते
सुखी छे, ते जिनेश्वर भगवानना मार्गमां आवेलो छे. ए धर्मी दुःखमां नथी वसतो,
नरकमां नथी वसतो, ए तो आनंदमय महान चैतन्यमां ज सदाय वसे छे. – मन के
चैतन्यधाम योगीओने ज गोचर छे, अज्ञानीओने तो ते अत्यंत दूर छे. विकल्पथी
चैतन्यतत्त्व आघु छे, ते विकल्पमां आवतुं नथी. धर्मीनुं जे स्वसंवेदनज्ञान तेमां ते
परम तत्त्व अत्यंत नीकट सदा स्पष्ट वर्ते छे. – तेमां ज धर्मी सदाय वसे छे ने
ईन्द्रियातीत मोक्षसुखने अनुभवे छे. ते ज सकळ गुणोनुं निधान छे, अने ते ज धर्मीनुं
आनंदमय रहेठाण छे.
न हतो एटले पूर्वे कदी में तेने भाव्यो न हतो, पण हवे परम गुरुना प्रसादथी मारुं
सुखना अमृतनो दरियो ऊछळे छे, – तेमां मारो आत्मा डुबी जाय छे, – मारा असंख्य
प्रदेशो ते सुखमां ज तरबोळ थई जाय छे. आ रीते आनंदना दरियामां डुबेला सहज
तत्त्वनी अपूर्व भावना, एटले के तेनी सन्मुख परिणति, ते ज मोक्षसुखनो मार्ग छे.