Atmadharma magazine - Ank 349
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’ १प
आत्मानी सांझी गवाय छे. तुंय लहावो ले!
अहीं गुरुदेव प्रमोदथी कहे छे के अहा! आ तो चैतन्यप्रभुनी सांझी गवाय छे....
तारा चैतन्यना गुणगान सांभळीने तुं आ सांझीनो लहावो लेवा तो आव! एकवार
आ तारा आत्मानी वात तो सांभळ. तारा आत्मानां गाणां सांभळवानो प्रेमथी
एकवार तो लहावो ले. – आत्मानी लगनीनो आ उत्तम अवसर छे.
धर्मात्मा क्यां वस्या छे? – चैतन्मयमय आनंदधामां
रागथी पार चैतन्य परम तत्त्व महा आनंदनुं धाम छे. समकिती सदाय आवा
आनंदना रहेठाणमां रह्या छे. कोई सातमी नरकमां रहेलो जीव होय, अंदर
आत्मानुं भान करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं होय; लोको तो बहारथी एम जाणे छे के
अरे, आ नारकी छे – महा दुःखी छे; – पण भाई! एने नारकी न जाण, ए तो
अंतरमां चैतन्यना महान आनंदधाममां वसनारो ‘देव’ छे –धर्मात्मां छे, जगतमां ते
सुखी छे, ते जिनेश्वर भगवानना मार्गमां आवेलो छे. ए धर्मी दुःखमां नथी वसतो,
नरकमां नथी वसतो, ए तो आनंदमय महान चैतन्यमां ज सदाय वसे छे. – मन के
वचन ज्यां पहोंची शकता नथी एवा अगोचर चैतन्यधाममां ते प्रवेशी गयो छे. तेनुं
चैतन्यधाम योगीओने ज गोचर छे, अज्ञानीओने तो ते अत्यंत दूर छे. विकल्पथी
चैतन्यतत्त्व आघु छे, ते विकल्पमां आवतुं नथी. धर्मीनुं जे स्वसंवेदनज्ञान तेमां ते
परम तत्त्व अत्यंत नीकट सदा स्पष्ट वर्ते छे. – तेमां ज धर्मी सदाय वसे छे ने
ईन्द्रियातीत मोक्षसुखने अनुभवे छे. ते ज सकळ गुणोनुं निधान छे, अने ते ज धर्मीनुं
आनंदमय रहेठाण छे.
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धर्मी जाणे छे के अहा! हुं अत्यंत अपूर्व रीते, आनंदना समुद्र एवा मारा
सहज अद्भुत तत्त्वने भावुं छुं. आवो अद्भुत आत्मा पूर्वे कदी मारी द्रष्टिमां आव्यो
न हतो एटले पूर्वे कदी में तेने भाव्यो न हतो, पण हवे परम गुरुना प्रसादथी मारुं
आ सहज तत्त्व प्राप्त करीने तेने ज हुं अत्यंत अपूर्व रीते भावुं छे ते भावनामां
सुखना अमृतनो दरियो ऊछळे छे, – तेमां मारो आत्मा डुबी जाय छे, – मारा असंख्य
प्रदेशो ते सुखमां ज तरबोळ थई जाय छे. आ रीते आनंदना दरियामां डुबेला सहज
तत्त्वनी अपूर्व भावना, एटले के तेनी सन्मुख परिणति, ते ज मोक्षसुखनो मार्ग छे.
सुखना सागरमां डुबेलुं परम तत्त्व – तेमां राग केवो? ने भेद केवो? विभावो
छोडीने, भेदद्रष्टि पण छोडीने, सुखनिधान आत्माने हुं अभेदपणे भावुं छुं. – आवी