कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’ १६
भावनामां अभेद मोक्षमार्ग आवी जाय छे. वाह! परमेश्वरना हृदयनो प्रवाह
वीतरागी संतोए जैनमार्गमां वहेतो राख्यो छे. एवा संतो द्वारा मारा आ सहज
आत्म तत्त्वने जाणीने, आनंदना दरियामां डुबेला आ सहज परम तत्त्वने अति अपूर्व
रीते हुं निरंतर भावुं छुं. धर्मीनी आवी भावना ते मोक्षनुं कारण छे.
मोक्षपुरीना किनारो देखतां महा आनंद
अहा, अनंत भवसागरमां गोथां खातां – खातां ज्यां मुक्तिनो किनारो देखाणो
त्यां मुमुक्षुना आनंदनी शी वात! भवसमुद्रमां तो अनंतकाळ महा दुःखमां वीताव्यो,
पण हवे ज्यां विभाव वगरनुं मारुं सहज शुद्ध तत्त्व श्री गुरुए मने देखाड्युं त्यां हवे
मारा आवा सहज तत्त्वनी भावनावडे मने अहा आनंदमय मुक्तिनो किनारो देखायो...
मोक्षपुरीना किनारे हुं आवी गयो. हवे बाकीनो अल्प भवसागर तरीने मोक्षपुरीमां
पहोंचतां शी वार!
जेम मधदरिये घणा काळथी वहाण झोलां खातुं होय, ने केटलाय दिवसो पछी
नजीकमां जमीन देखाय त्यां दरियाना प्रवासी आनंदित थई जाय छे के हवे दरियानी
मुसाफरीनो अंत आव्यो, ने ईष्टनगरीनी नजीक आवी पहोंच्या....... तेम चार गतिरूप
दुःखमय भवसमुद्रमां अनादिकाळथी जीव डुबी रह्यो हतो, – पुण्य – पाप वच्चे झोलां
खाई रह्यो हतो; हवे अनंतकाळे श्रीगुरुना प्रतापे परम चैतन्यतत्त्वने ओळखतां
मोक्षनगरीनुं सुख पोताना अंतरमां ज देख्युं, त्यां मुमुक्षुजीव परम आनंदित थाय छे के
अहो, आ दुःखयमय भवसमुद्रमां भ्रमणनो हवे मारे अंत आवी गयो, आनंदमय
मोक्षपुरी हवे एकदम नजीक देखाणी. – आम परमतत्त्वनी भावना वडे ते मुमुक्षु
संसारसमुद्रने अल्पकाळमां ज तरीने आनंदथी मोक्षपुरीमां पहोंची जाय छे.
परम महन चतन्यतत्त्व!
अरे, आवुं महान परम चैतन्यतत्त्व! ते रागबुद्धिवाळा अज्ञानीना हृदयमां केम
बेसे? रागमां ने अज्ञानमां परमेश्वरनुं स्थान केम होय?
अने, जे ज्ञानीना निर्मळ अंतरमां आवुं महा परम चैतन्यतत्त्व बेठुं तेना
अंतरमांथी ते केम खसे? अने विकार हवे तेना अंतरमां केम वसे? ज्यां परमात्मानो
वास थयो त्यां अज्ञान के राग केम रही शके?
अहा, चैतन्यनी केवळज्ञानादि अनंत लब्धि, तेनी पासे जगतनी कोई लब्धिनी
शी किंमत छे?
– आवुं अद्भुत परम चैतन्यतत्त्व हुं छुं – एम लक्षगत करी, अनुभवगम्य
करी, अंतर्मुखपणे तेनी वारंवार भावना करवा जेवी छे. आवी निजभावना ते
चैतन्यना परम आह्लादनुं कारण छे....... अने ते ज वीतरागी शास्त्रनो सार छे.