Atmadharma magazine - Ank 349
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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कारतक २४९९ ‘‘आत्मधर्म’’
ज्ञानीनुं ज्ञान रागनुं कर्ता थाय – ते वात अशक्य छे
बपोरे समयसारनी ९३ मी गाथाना प्रवचनमां, ज्ञानमां कर्मनुं
अकर्ता पणुं छे – ते वात समजावी. अहो, जीवनो चेतनस्वभाव, तेने
अनुभवनार ज्ञानीनुं ज्ञान रागरूपे थतुं नथी एटले ते रागने करतुं
नथी. तेनुं ज्ञान तो ज्ञानपणे ज रहे छे. ज्ञानरूपे परिणम्यो ते रागने
केम करे? ज्ञानभावनुं रागरूपे थवुं अशक््य छे. ज्यारे स्व–परनी
भिन्नता जाणे, ज्ञान अने रागनी भिन्नता जाणे, त्यारे आवी ज्ञानदशा
प्रगटे, ने ते जीवने धर्मी कहेवाय. ते धर्मीजीव ज्ञाननो ज कर्ता छे, ने
ज्ञानथी अन्य रागादि कोई भावने ते आत्मारूपे करतो नथी, तेने
आत्माथी जुदा ज जाणे छे.
– आवुं ज्ञान ते कर्मनी उत्पत्तिनुं कारण नथी, एटले ते मोक्षनु
कारण छे. आवा ज्ञाननी क्रियावडे भगवाने मोक्षने साध्यो. तुं पण
मोक्षने माटे आवा ज्ञानस्वरूप आत्माने ओळख.
“राग तो दशमा गुणस्थान सुधी होय छे ने! ’ – भले होय,
पण ते राग रागपणे छे, ते कांई ज्ञानपणे नथी. राग अने ज्ञाननी
भिन्नतानुं ज्ञान तो चोथागुणस्थानथी ज थई जाय छे. राग होय तेथी
ते राग करतां करतां ज्ञान थशे – एम कोणे कह्युं? ज्ञानस्वरूप
आत्मावडे रागरूप के जडरूप परिणमवुं अशक््य छे, एटले जेणे
ज्ञानस्वरूप आत्माने जाण्यो तेना वडे जडरूप के रागरूप थवुं अशक््य
छे; रागनुं कर्तापणुं ते तो अज्ञाननुं काम छे, ज्ञानमां तो ते अशक््य
छे. – जुओ, आवुं अलौकिक ज्ञान प्रगट करवुं ते साची दीवाळी छे.
रागमां एवी ताकात नथी के ते ज्ञानमां घूसीने ज्ञानरूप थाय.
अने ज्ञाननुं एवुं स्वरूप छे के ते कदी रागरूप थाय ते वात अशक््य
छे. ज्ञान अने रागना आवा विशेषने (एटले के अत्यंत भिन्नताने)
ज्ञानी ज जाणे छे.
खरो आत्मा ज तेने कहेवाय के जे ज्ञानभावरूप परिणमे;
ज्ञानभावमां राग न समाय.
रागना कर्तापणे थनारो भाव ते तो अज्ञानभाव छे, तेने
खरेखर आत्मा कहेता नथी.