अंक ३४८ मां आपे वांच्या; आ त्रीजो निबंध संशोधनसहित रजु थाय
छे. आ निबंधोद्वारा सम्यक्त्वभावनानुं घोलन करतां दरेक जिज्ञासुने
प्रसन्नता थशे आ निबंध लखनार छे
जीवने कोई आत्मज्ञानी संत – गुरुनो समागम प्राप्त थाय तो ते खरेखर सोनामां सुगंध
मळवा जेवो उत्तम योग थाय. त्यारबाद आवा सत्समागम द्वारा सींचाता धर्म संस्कारथी
जीवने एम थाय के अरे! आ मनुष्यगति अने उत्तम जैन धर्मनो सुयोग मळ्यो तेनो
सदुपयोग जो आत्महितार्थे नहि करी लउं तो आ देहनां रजकणो छूटा पडीने पवनमां
ऊडती रेतीनी माफक वींखाई जशे. – पछी फरीने आवो मनुष्यअवतार कोण जाणे क््यारे
रहे, अने दुःखी थईने चोराशीना फेरामां रखडवुं पडशे. माटे हे जीव! तूं चेत! अने
सावधान था!! तारा समजण करवानां टाणां आवी पहोंच्या छे. प्रमाद तज अने
मिथ्यात्वरूपी भ्रमने भांगीने आत्माने ओळख.
कुटुंब – सगांसबंधी वगेरे बधुं तेने पारकुं लागे छे, अने सत्यसमागम तथा
वैराग्यप्रेरक प्रसंगो तेने विशेष गमे छे. तेने क्षणे क्षणे एम थतुं होय छे के हुं शुं करूं!
क््यां जाउं? कोनुं शरणुं शोधुं के जेथी मने शांति थाय; कोनो सत्संग करुं के जेथी