Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : ११ :
तरफ वळ्‌या करे छे. एटले बाह्य प्रसंगोमां तेनुं चित्त उदास रहेतुं होवाथी जाणे
खोवायेलुं – खोवायेलुं रह्या करे छे.
ते द्रढतापूर्वक जाणे छे के जड–चेतन तमाम द्रव्यो लक्षणभेदथी जुदां छे. जीवनुं
कार्य मात्र जाणवुं अने पोतानां निजपरिणाम करवां ते छे. जगतना अन्य पदार्थो
अने तेमनां कार्य ते मारां नथी; छतां तेने मारां मानुं तो स्वधर्मनी मर्यादा लोपाय ने
मिथ्यात्वरूपी महापाप थाय. – एवु हुं केम करुं? अनादिथी अज्ञानवश अन्य पदार्थो
अने तेमनां परिणमनो प्रत्ये अनेक प्रकारनां अभिप्रायो आपतो आव्यो, एटलुं ज
नहि परंतु तेमने निज अभिप्राय मुजब फेरववानी बुद्धिथी अनंता राग–द्वेष करी
करीने दुःखी थयो. अरेरे! अज्ञानभावथी तो में अत्यार सुधी दुःख दुःख ने दुःख ज
वेद्युं छे. पण हवे श्रीगुरु– संतोना प्रतापे ए दुःखनो आरो आव्यो छे. श्री तीर्थंकर
भगवाननो उपदेश महाभाग्ये मने मळ्‌यो, अने हवे मने खबर पडी के हुं तो मात्र
मारां परिणामोनो ज कर्ता छुं. पर साथे मारे कांई संबंध नथी, तेथी तेमां राग–द्वेष
करवा निरर्थक छे. तत्त्वज्ञानपूर्वक आम वर्तवाथी जगतमां थता अन्य फेरफारो प्रत्ये
हवे तेने कंई पण लेवा – देवानी वृत्ति के सुख– दुःखनी वृत्ति रहेती नथी; एटले
मिथ्या कलेश – कषायथी छूटवानुं सहज बनी जाय छे. वळी ते पोताना चैतन्य
स्वरूपनो अचिंत्य महिमा विचारी पोतानो उपयोग स्वआत्मा तरफ घुमाववानो
पुरुषार्थ करे छे; अने बाह्य तरफ झूकती परिणतिने पाछी वाळे छे. शांति अनुभववा
माटे शांतिस्वरूप जे पोतानी वस्तु छे तेमां ज उपयोगने दोरी जाय छे; कारणके निज
आत्मा सिवाय बहारथी क््यांयथी शांति मळती नथी – एनी तेने खातरी छे. जेमां
मारी शांति नथी एवा जगतनां तमाम निमित्तो – साधनो वगेरे पदार्थोथी मारे शुं
प्रयोजन छे? मारे तो मारा आत्मा साथे प्रयोजन छे. आम स्व–परनुं अत्यंत
पृथक्क्रण करी, स्वानुभूति माटे ते चिंतवे छे के–
हुं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञान दर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!
मारुं स्वरूप शुद्धस्वरूप होई तेने अन्य कोई वस्तु साथे कांई संबंध नथी; हुं
सदैव एक चैतन्यमात्र छुं, अखंड – आनंदकंद छुं; सुखधाम अने ज्ञानसागर छुं.
चैतन्यनो फूवारो छुं; सत् – चित् – आनंदमय हुं ज पोते छुं – पछी बीजानुं मारे शुं