Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : १३ :
आवी पहोंचतां तेने जे अकल्प्य आनंद थाय तेवो आनंद आत्मामां सम्यक्त्व थतां
थई जाय. (उपमा माटे स्थूळ द्रष्टांत छे, बाकी तो सम्यक्त्वना अतीन्द्रिय
महाआनंदने बहारनी कोई उपमा लागी शकती नथी.) एकवार आवा आनंदनो
स्वाद चाख्यो पछी तेने जगत साव जुुंदु जांदु लागे छे. पर्वत पर वीजळी पडतां जेम
मोटी ऊंडी तीराड पडी जाय तेम भेदज्ञानरूपी वीजळी वडे ज्ञान अने राग वच्चे, स्व
अने पर वच्चे तीराड पडतां तेमनी अत्यंत जुदाई स्पष्ट भासे छे. हवे तेओ कदी
एकपणे भासता नथी. अनादिकाळना दुःखना दरियामांथी बहार नीकळी सादिअनंत
सुखना महासमुद्रमां प्रवेश थई गयो– एना परम आह्लादनी शी वात!! एनी
अधिकता आश्चर्यकारी होय छे. जगतनी तमाम प्रकारनी द्विधाओमांथी नीकळवानो
मार्ग तेने हाथ आवी गयो. अहा! –
“मन शांत भयो, मीट सकल द्वंद;
चाख्यो स्वातम – रस, दुःख निकंद.”
आम स्वात्मानो आनंदरस चाख्यो त्यां तमाम द्वंद–फंद वगेरे मटी गया, ने
परम शांतदशा थई. तेने हवे राग अने द्वेषनो रस छूटी गयो, मध्यस्थता –
वीतरागता प्रिय लागी. “मारा शांतरसपूर्ण आत्मामां ज हुं छुं, बीजे क््यांय हुं नथी”
एम हंमेशांं रह्या करे छे. लक्ष तो बस! आत्मानुं.. . आत्मानुं... ने आत्मानुं! वच्चे
गमे ते प्रसंग आवे, गमे ते योग बने, परंतु आत्मा सिवाय कांई ईष्ट न लागे,
क््यांय मन चोंटे ज नहि. वेपारादि योग्य धंधा तेने स्व–पोषण अर्थे करवा पडे तेमां
पण ते मध्यस्थतापूर्वक अने आत्माना लक्षपूर्वक ज वर्ततो होय. जळकमळवत्
रहेवानुं तेनुं साहजिक जीवन होय. अने तेवा सहज जीवनने वधारे वेग आपे तेवा
धर्मचर्चा–तीर्थयात्रा –स्वाध्याय – जिनमहिमा वगेरे प्रसंगोमां तेने प्रेम होय. तेना
विचार–वाणी अने वर्तन हंमेशांं तत्त्वथी अविरुद्ध रह्या करता होय. जिनमार्गथी
विपरीत कोई मार्गने ते पुष्टि आपे नहीं. वळी बोलवुं – चालवुं वगेरे प्रवृत्तिमां पण
तेने आत्मस्वभावनी ने जैनधर्मनी महत्ता नीतरती होय. साधर्मी ज्ञानीने देखतां
तेना हृदयमां आनंद उल्लसी आवे.
आवी अपूर्व सम्यक्त्वदशा पछी पण विशेष आगळ वधवा माटे तेनुं चित्त
हवे संयम तरफ ढळतुं जाय. बाह्य सुख अने सगवडो तेने सुखनां किंचित् पण
कारणभूतन लागवाथी संयमित जीवननी भावना तेना हृदयमां सदाय वर्तनी होय.