Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : मागशर : २४९९
साचो निर्णय नथी; ज्ञानमां वस्तु आवीने जे निर्णय थाय ते ज साचो निर्णय छे. ते
निर्णय क्यारे थाय? – के ज्ञानपर्याय रागथी जुदी थईने, अंतर्मुख थईने पोताना
स्वभावने अखंडस्वरूपे लक्षमां ल्ये त्यारे ज आत्मस्वरूपनो साचो निर्णय थाय छे,
अने आवा निर्णयपूर्वक ज्ञाननो झुकाव शुद्धात्मा तरफ वळे छे. आ रीते आत्मसन्मुख
थवाथी ज सिद्धिनो मार्ग खूले छे. सिद्धपदनी आराधना आत्मानी अंदर ज थाय छे.
आत्मा पोते ज्ञान–दर्शन – सुखस्वभावी महान पदार्थ छे, तेमां कोई कलेश
नथी. अहा, नीरालंबी आत्मवस्तु! एने साधनारा संतोनी दशा पण अंतरमां घणी
नीरालंबी होय छे. तेओ कहे छे के हे जीव! तारे परमेश्वरने जोवा होय ने परमेश्वर
थवुं हो तो परमेश्वरनी शोध अंतरमां ज कर. परमेश्वरपणुं आत्मामां ज छे. आ रीते
मुमुक्षु जीव अंर्तशोधमां वर्ते छे.
जीवादि पदार्थोना स्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा करनारुं सम्यग्द्रर्शन ते धर्मनुं मूळ छे.
ते प्राप्त थतां जगतमां एवुं कोई ज सुख नथी के जे जीवने प्राप्त न थाय; एटले
सम्यग्द्रर्शनने ज सर्वसुखनुं मूळ कारण जाणीने तेने सेवो. आ संसारमां ते ज पुरुष
श्रेष्ठ छे, ते ज कृतार्थ छे अने ते ज पंडित छे के जेना हृदयमां निर्दोष सम्यग्द्रर्शन
प्रकाशे छे. सम्यग्द्रर्शन ज सिद्धिप्रसादनुं प्रथम सोपान छे, मोक्षमहेलनुं पहेलुं पगथियुं
सम्यग्द्रर्शन छे; ते ज दुर्गतिनां द्वारने रोकनार मजबुत कमाड छे, ते ज धर्मना झाडनुं
स्थिर मूळियुं छे, ते ज मोक्षपुरीनुं प्रवेशद्वार छे, अने ते ज शीलरूपी हारनी वचमां
लागेलुं श्रेष्ठ रत्न छे; संसारनी मोटी वेलने ते मूळमांथी ऊखेडी नांखे छे. आवो
सम्यक्त्वनो महिमा आत्मसन्मुख जीव जाणे छे तेथी तेने माटे ते अत्यंत पुरुषार्थ करे
छे. सम्यग्द्रर्शन थतां अनंत संसारनो अंत आवी जाय छे ने अनंत मोक्षसुखनो
प्रारंभ थाय छे. जेम शरीरना सर्वे अंगोमां मस्तक प्रधान छे अने मुखमां नेत्र मुख्य
छे तेम मोक्षने प्राप्त करवा माटे सर्व धर्मोमां सम्यग्द्रर्शन ज मुख्य छे.
धर्मीजीव चैतन्यना स्वादना बळे रागादि समस्त परभावोने जुदा जाणे छे;
अनादिथी रागमां जे कदी नहोतुं आव्युं एवुं नवीन वेदन धर्मीने चैतन्यस्वादमां आवे
छे. तेने आत्मानी अनुभूतिमां अतीन्द्रिय चैतन्यरसनो जे अत्यंत मधुर स्वाद
आव्यो तेमां अनंत गुणनो रस समाई जाय छे. आवा वेदनपूर्वक पर्यायमां जे
चैतन्यधारा प्रगटे छे तेमां रागादि अन्यभावोनो अभाव छे, एटले रागनो अने
ज्ञाननो स्वाद अत्यंत