Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९९ आत्मधर्म : १७ :
स्पष्ट जुदो जणाय छे. राग वगरनो ए चैतन्यस्वाद अत्यंत मधुर अने जगतना बीजा
बधा रसोथी जुदी जातनो छे. आनंदपर्यायसहितना द्रव्यमां व्यापेलो आत्मा ते हुं छुं
एम धर्मीजीव अनुभवे छे. विकल्पो बधा ते अनुभूतिथी जुदा रही जाय छे, ते विकल्पो
वडे आत्मा पमातो नथी. आत्मसन्मुख जीव चेतनस्वादना अनुभवमां रागने भेळवतो
नथी, ते आत्माने स्वरसमां ज राखे छे, अने पर्याय पण तेवी ज थईने परिणमी रहे छे.
मोह जरापण मारो नथी, हुं तो द्रव्यमां तेम ज पर्यायमां सर्वत्र एक चैतन्यरसथी भरेलो
छुं; सर्वप्रदेशे शुद्ध चैतन्यप्रकाशनो निधान छुं – एम ते अनुभवे छे.
आवा चैतन्यस्वभावने स्वीकारनारां श्रद्धा–ज्ञान ते रागादि परभावोथी जुदा
ने जुदां ज रहे छे अने ते अंदरना आनंद अने अनंतगुणनी निर्मळ परिणति साथे
एक रसपणे परिणमे छे. अनंतगुणना स्वादथी एकरस भरेलो चैतन्यरस धर्मीने
अनुभवमां स्वादमां आवे छे. स्त्री – पुत्र, मान – अपमान वगेरे संबंधी अनेक
प्रकारनां दुःखोथी अने राग–द्वेषथी छूटवा माटे आवा आत्मानी भावना ज एक
अपूर्व औषध छे.
दुःखथी छूटवा ने सुख पामवा आत्मस्वभावनी आराधना ए मुमुक्षुजीवनुं ध्येय
छे. ते ध्येयनी सफळता माटे आराधक–धर्मात्माओनो सत्समागम करीने ते पोतानी
आत्मार्थिताने पुष्ट करे छे. एवा आराधक जीवोनो सत्समागम प्राप्त थवो बहु दुर्लभ छे
केम के जगतना जीवोमां आराधक जीवो अनंतमा भागना ज छे – आम छतां, आत्माने
साधवा माटे जागेला मुमुक्षुने कोईने कोई प्रकारे तेनो मार्ग बतावनारा ज्ञानी मळी जाय
छे. रागादिथी भिन्न ज्ञानचेतनारूपे परिणमेला ज्ञानीने ओळखीने ते तेनो समागम करे
छे, ने ते ज्ञानीना ज्ञानभावोनी ओळखाण थतां ते आत्मार्थीजीवनां परिणाम
आत्मस्वभाव तरफ झूके छे; तेनी आत्मार्थिता पुष्ट थाय छे ने रागनो रस तूटतो जाय
छे. एम थतां कदी नहि अनुभवायेली एवी अपूर्व आत्मशांतिना भावो तेने पोतामां
जागे छे. ज्ञानीना साचा समागमनुं आवुं फळ जरूर आवे ज छे.
आत्मार्थी जीवने मोंघा सत्समागमनी प्राप्तिनो अने आत्मार्थनी पुष्टि करीने
शांतिना वेदननो आ सोनेरी अवसर छे. तेने एम थाय छे के हवे मारुं काम एक ज
छे के बधामांथी रस छोडीने, समयेसमये स्वनी संभाळ करीने, बधा प्रकारथी
आत्मवस्तुनो महिमा घूंटीघूंटीने रागथी जुदा चैतन्यभावनुं अंतरवेदन करवुं. ते
विचारे छे के हवे हुं मारा प्रयत्नमां ऊंडो ऊतरीश; मारो आत्मा ज आनंदनो
महासागर छे तेमां डुबकी मारीने तेना एक टीपांनों स्वाद लेतां पण रागादि समस्त
परभावनो स्वाद छूटीने